Wednesday, March 30, 2016

बेरोजगार का प्रेम प्रसंग

बनारस में सबसे पहले अगर कहीं सुबह होती है तो प्रहलाद घाट मुहल्ले में।
जैसे ही सवा छह हुआ कि दो बातें एक साथ होती हैं।
जगेसर मिसिबीर सूर्य भगवान को जल चढ़ाते हैं।
दूसरी ये कि परमिला नहा कर छत पर कपड़े फैलाने आ जाती है।

मिसिर जी के होंठ कहते हैं- "ओम् सूर्याय नम:"
और
दिल कहता है-
'मेरे सामने वाली खिड़की में एक चाँद का टुकड़ा रहता है'।

इसी सूर्य और चंद्र के बीच जगेसर बाबा साढ़े तीन साल से झूल रहे हैं।

आज जगेसर जी तीन लोटा जल चढ़ा चुके थे पर उनका 'चांद' नहीं दिखा।
फिर चौथा लोटा

फिर पांचवा..... ...
दसवां।
पंडितजी अब परेशान कि आखिर मामला क्या है?

अब तक तो 'चाँद' दिख जाता था।
सामने से सनिचरा गाना गाते हुए जा रहा है...

"मेरा सनम सबसे प्यारा है...सबसे...।"

जगेसर जल्दी से घर में आते हैं।
फेसबुक स्टेट्स चेक करते हैं।
परमिला ने आज गुडमार्निंग का मैसेज भी नहीं भेजा।
फोन करते हैं कालर टोन सुनाई देता है.....
ओम् त्र्यम्बकं यजामहे......।

दुबारा तिबारा फोन करते हैं।


पाँच मिनट बाद फोनउठता है। पण्डितजी व्यग्रता से पूछते हैं-

"अरे कहां हो जी?"..

"आज दिखी ही नहीं....
 तबीयत ठीक ठाक है न?"

उधर की आवाज़- "पंडीजी हमरा बियाह तय हो गया है।..

 अब हम छत पर नहीं आ सकते। .....
फोन भी मत कीजिएगा।.....
फेसबुक पर हम आपको ब्लॉक कर दिए हैं।...
बाबूजी कह रहे थे कि बेरोजगार से बियाह करके हम लड़की को........."

जगेसर बात काटते हैं-
"अरे तो हमको नौकरी मिलेगी नहीं का?"
परमिला डाँटती है-

"चुप करिए पंडीजी!
2008 में जब आप बी०एड्० करते थे तब से एही कह रहे हैं।......
बिना दूध का लईका कौ साल जिलाएंगे??"

दिन के दस बज रहे हैं। तापमान अभी सैंतालीस के आसपास हो गया है।पूरा अस्सी घाट खाली हो गया है। दो चार नावें दूर गंगा में सरक रही हैं। चमकती जल धारा में सूर्य का वजूद हिल रहा है। कुछ बच्चे अभी भी नदी में खेल रहे हैं।

पंडीजी सीढ़ियों पर बैठे अपना नाम दुहराते हैं-
"पंडित जगेश्वर मिश्र शास्त्री
 प्रथम श्रेणी,
आचार्य,
गोल्ड मेडलिस्ट,
नेट क्वालीफाईड,
बीएड 73%,

2011 में लेक्चरर का फार्म डाला अभी तक परीक्षा नहीं हुई।

2013 में परीक्षा दी,
नौ सवाल ही गलत आए थे और तीन सवालों के जवाब बोर्ड गलत बता रहा है।

मतलब साफ है इसमें भीकोई चांस नहीं।

डायट प्रवक्ता से लेकर उच्चतर तक की परीक्षा ठीक हुई है। पर छह महीने बाद भी भर्तीका पता नहीं।

प्राईमरी टेट में 105 अंक हैं। मतलब इसमें भी चांस नहीं।

2012 में पी०एचडी० प्रवेश परीक्षा पास की थी पर अभी तक किसी विश्वविद्यालय ने प्रवेश ही नहीं लिया।

तभी बलराम पांडे कन्धे पर हाथ रखते हैं-
"अरे शास्त्री जी!..
पहला मिठाई आप खाइए।"..
हमरा शादी तय हो गया है।.....

पं०रामविचार पांडे की लड़की परमिला से।
आप मेरा हाईस्कूल, इण्टर का कापी न लिखे होते तो
हमारा एतना अच्छा नंबर नहीं आता।
न हम शिक्षामित्र हुए होते।
न आज मास्टर बन पाते।
न आज एमे पास सुन्दर लड़की से बियाह होता।"

जगेसर मिसिर के हाथ में लड्डू कांप रहा है।
तभी बलराम पांडे फिर बोलते हैं-

"अच्छा!
'अग्नये स्वाहा' में कौन विभक्ति होती है एक बार फिर समझा दिजियेगा...
कोई पूछ दिया तो ससुरा बेइज्जती खराब हो जाएगी।"

जगेसर नशे की सी हालत में घर में घुसते हैं।
हवन- सामग्री तैयार करते हैं।

और
हवन पर बैठ जाते हैं। अबअग्नि में समिधाएँ जल रही हैं।

अचानक उठते हैं और अपने सारे अंकपत्र-प्रमाणपत्र अग्नि में डाल देते हैं।
और
चिल्लाते हैं-




"अग्नये स्वाहा!
अग्नये स्वाहा!!...

चतुर्थीविभक्ति एक वचन...

चतुर्थी विभक्ति एक वचन!!"

और

मूर्छित होकर वहीं गिर पड़ते हैं।

अगले दिन के अखबार में वही रोज की खबरें होंगी-








गर्मी ने ली एक और व्यक्ति की जान .....

Wednesday, November 18, 2015

 Please do watch this Devi Geet devoted to Maa Vindhyavasini
https://www.youtube.com/watch?v=PSYFvX98_34

Friday, November 6, 2015

हमसफर

जिन्दगी में इश्क का था इक बड़ा सा आसियाना,
उनके आने की खबर से दिल बना था आशिकाना।

इश्क की ये इन्तहा थी जिन्दगी की राहों में,
उनके बारे में था सोचा वो बनेंगे हमसफर।
महफिले गुलजार होती उनके आने के लिए,
गर वो आते जिन्दगी में बनकर मेरे सामियाना।

राह ए उल्फत की नजर में वो थे मेरे हमसफर,
पर न जाने किसलिए थी उनको न इसकी खबर।
हमने चाहा तो बहुत था उनको पाने के लिए,
पर नहीं था उनके मन में इक भी ऐसा सूफियाना।

                                रजनीश 

Monday, December 16, 2013

चाहत.....

चाहतों की चाहतें, चाहत ही बनकर रह गयी।
उनको पाने की तमन्ना ख्वाहिशें ही रह गयी॥

कुछ तो उनमें बात थी जो, दिल तड़प कर रह गया।
उनकी अदाएँ देखकर, दिल मचल के रह गया॥
भावनाओं में थी मासूमियत की कुछ ऐसी लहर।
अ़क्लमन्दी की सारी क़यासें उनमें बहकर रह गयी॥

परम्पराओं में कुछ इस तरह जकड़ा हुआ था मेरा मन।
इश्क़ पाने की तमन्ना उनमें जकड़कर ही रह गयी॥
ग़ौर करता हूँ कभी मै, मासूमियत उनके चेहरे की।
पर मासूम तो था दिल भी मेरा, मासूम बनकर रह गया॥

इश्क़बाज़ी की भला इससे बड़ी इन्तहाँ क्या और होगी।
हम चाहते रहें इतना उनको, पर वो इनकारते ही रह गये॥
ज़िन्दगी के सफ़र में इससे बड़ा सदमा था न कोई।
चाहते थे जिनको दिल से, उनके मन में नफ़रतें ही रह गयीं॥

ख़्वाबों में मेरे आये कुछ इस तरह वो ख़्वाब बनकर।
फिर से उनको पाने की तमन्ना दिल में मचल गयी॥
हैरान हूँ मैं अपने दिल के नफ़रतों के अन्दाज़ से।
नफ़रतों से नफ़रत करके वो प्यार में ही बह गया॥

चाहतों की भला इससे बड़ी सज़ा क्या और होगी।
चाहतों की चाहतें चाहत ही बनकर रह गयीं॥

Thursday, May 2, 2013

...लेकिन मैं कह नहीं पाया!!!


चाहा तो बहुत उसको,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥
बचपन साथ साथ पला,
जवानी साथ साथ बढ़ा।
शायद वो भी चाहती मुझको,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥

बचपन उंगली पकड़कर बीता,
जवानी हाथ पकड़कर चलती।
शायद उसको भी मेरे साथ का था इन्तज़ार,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥

आज जब मैं सोचता हूँ बचपन के वो दिन,
आम के छाँव के तले बिताये वो पल।
कहता उससे तो उसे भी आता याद,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥

शायद कोई अनजान सा डर था मन में,
जान कर भी उसको, अनजान बनता था उससे।
शायद वो भी पहचान लेती मुझे,
लेकिन मैं कह नहीं पाया।

कमी यही रह गयी मुझमें कि,
रिश्ते निभाने में रह गया पीछे।
खुद आगे बढ़कर हाथ थामता उसका,
तो आज बात कुछ और ही होती,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥

कहीं न कहीं उसकी भी गलती थी,
क्या मुझे वह नहीं जानती थी।
वो कह दे तो कह दे वरना,
हम कभी एक ना हो पायेंगे,
चाहते तो हम भी हैं उसको बहुत,
लेकिन ये बताये कौन उसको ।
चाहतें शायद नया इतिहास रचती,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥


Thursday, August 4, 2011

भर्तृहरेः शतकत्रयी-०१

नीतिशतकम्
भर्तृहरेः
दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्तये ।
स्वानुभूत्य्एकमानाय नमः शान्ताय तेजसे । । १.१ । ।
बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः
प्रभवः स्मयदूषिताः ।
अबोधोपहताः चान्ये
जीर्णं अङ्गे सुभाषितं । । १.२ । ।
अज्ञः सुखं आराध्यः
सुखतरं आराध्यते विशेषज्ञः ।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं
ब्रह्मापि तं नरं न रञ्जयति । । १.३ । ।
प्रसह्य मणिं उद्धरेन्मकरवक्त्रदंष्ट्रान्तरात्
समुद्रं अपि सन्तरेत्प्रचलदूर्मिमालाकुलं ।
भुजङ्गं अपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूऋखजनचित्तं आराधयेथ् । । १.४ । ।
लभेत सिकतासु तैलं अपि यत्नतः पीडयन्
पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः ।
क्वचिदपि पर्यटन्शशविषाणं आसादयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खचित्तं आराधयेथ् । । १.५ । ।
व्यालं बालमृणालतन्तुभिरसौ रोद्धुं
समुज्जृम्भते
छेत्तुं वज्रमणिं शिरीषकुसुमप्रान्तेन सन्नह्यति ।
माधुर्यं मधुबिन्दुना रचयितुं क्षारामुधेरीहते
नेतुं वाञ्छन्ति यः खलान्पथि सतां सूक्तैः सुधास्यन्दिभिः । । १.६ । ।
स्वायत्तं एकान्तगुणं विधात्रा
विनिर्मितं छादनं अज्ञतायाः ।
विशेषतः सर्वविदां समाजे
विभूषणं मौनं अपण्डितानां । । १.७ । ।
यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः
यदा किञ्चित्किञ्चिद्बुधजनसकाशादवगतं
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः । । १.८ । ।
कृमिकुलचित्तं लालाक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितं
निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषं ।
सुरपतिं अपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते
न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुतां । । १.९ । ।
शिरः शार्वं स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं
म्हीध्रादुत्तुङ्गादवनिं अवनेश्चापि जलधिं ।
अधोऽधो गङ्गेयं पदं उपगता स्तोकम्
अथवाविवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः । । १.१० । ।
शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक्च्छत्रेण सूर्यातपो
नागेन्द्रो निशिताग्कुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभौ ।
व्याधिर्भेषजसङ्ग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगैर्विषं
सर्वस्यौषधं अस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नस्त्यौषधिं । । १.११ । ।
साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः
साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।
तृणं न खादन्नपि जीवमानस्
तद्भागधेयं परमं पशूनां । । १.१२ । ।
येषां न विद्या न तपो न दानं
ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति । । १.१३ । ।
वरं पर्वतदुर्गेषु
भ्रान्तं वनचरैः सह
न मूर्खजनसम्पर्कः
सुरेन्द्रभवनेष्वपि । । १.१४ । ।
शास्त्रोपस्कृतशब्दसुन्दरगिरः शिष्यप्रदेयागमा
विख्याताः कवयो वसन्ति विषये यस्य प्रभोर्निर्धनाः ।
तज्जाड्यं वसुधादिपस्य कवयस्त्वर्थं विनापीश्वराः
कुत्स्याः स्युः कुपरीक्षका हि मणयो यैरर्घतः पातिताः । । १.१५ । ।
हर्तुर्याति न गोचरं किं अपि शं पुष्णाति यत्सर्वदाऽप्य्
अर्थिभ्यः प्रतिपाद्यमानं अनिशं प्राप्नोति वृद्धिं परां ।
कल्पान्तेष्वपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यं अन्तर्धनं
येषां तान्प्रति मानं उज्झत नृपाः कस्तैः सह स्पर्धते । । १.१६ । ।
अधिगतपरमार्थान्पण्डितान्मावमंस्थास्
तृणं इव लघु लक्ष्मीर्नैव तान्संरुणद्धि ।
अभिनवमदलेखाश्यामगण्डस्थलानां
न भवति बिसतन्तुर्वारणं वारणानां । । १.१७ । ।
अम्भोजिनीवनविहारविलासं एव
हंसस्य हन्ति नितरां कुपितो विधाता ।
न त्वस्य दुग्धजलभेदविधौ प्रसिद्धां
वैदग्धीकीर्तिं अपहर्तुं असौ समर्थः । । १.१८ । ।
केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः ।
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणं । । १.१९ । ।
विद्या नाम नरस्य रूपं अधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं
विद्या भोगकरी यशःसुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परा देवता
विद्या राजसु पूज्यते न तु धनं विद्याविहीनः पशुः । । १.२० । ।
क्षान्तिश्चेत्कवचेन किं किं अरिभिः क्रोधोऽस्ति चेद्देहिनां
ज्ञातिश्चेदनलेन किं यदि सुहृद्दिव्यौषधं किं फलं ।
किं सर्पैर्यदि दुर्जनाः किं उ धनैर्विद्याऽनवद्या यदि
व्रीडा चेत्किं उ भूषणैः सुकविता यद्यस्ति राज्येन किं । । १.२१ । ।
दाक्षिण्यं स्वजने दया परिजने शाठ्यं सदा दुर्जने
प्रीतिः साधुजने नयो नृपजने विद्वज्जने चार्जवं ।
शौर्यं शत्रुजने क्षमा गुरुजने कान्ताजने धृष्टता
ये चैवं पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः । । १.२२ । ।
जाड्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं
मानोन्नतिं दिशति पापं अपाकरोति ।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं
सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुंसां । । १.२३ । ।
जयन्ति ते सुकृतिनो
रससिद्धाः कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशःकाये
जरामरणजं भयं । । १.२४ । ।
सूनुः सच्चरितः सती प्रियतमा स्वामी प्रसादोन्मुखः
स्निग्धं मित्रं अवञ्चकः परिजनो निःक्लेशलेशं मनः ।
आकारो रुचिरः स्थिरश्च विभवो विद्यावदातं मुखं
तुष्टे विष्टपकष्टहारिणि हरौ सम्प्राप्यते देहिना । । १.२५ । ।
प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं
काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषां ।
तृष्णास्रोतो विभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा
सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रेयसां एष पन्थाः । । १.२६ । ।
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः
प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः ।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः
प्रारब्धं उत्तमजना न परित्यजन्ति । । १.२७ । ।
असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः
प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनं असुभङ्गेऽप्यसुकरं ।
विपद्युच्चैः स्थेयं पदं अनुविधेयं च महतां
सतां केनोद्दिष्टं विषमं असिधाराव्रतं इदं । । १.२८ । ।
क्षुत्क्षामोऽपि जराकृशोऽपि शिथिलप्राणोऽपि कष्टां दशाम्
आपन्नोऽपि विपन्नदीधितिरिति प्राणेषु नश्यत्स्वपि ।
मत्तेभेन्द्रविभिन्नकुम्भपिशितग्रासैकबद्धस्पृहः
किं जीर्णं तृणं अत्ति मानमहतां अग्रेसरः केसरी । । १.२९ । ।
स्वल्पस्नायुवसावशेषमलिनं निर्मांसं अप्यस्थि गोः
श्वा लब्ध्वा परितोषं एति न तु तत्तस्य क्षुधाशान्तये ।
सिंहो जम्बुकं अङ्कं आगतं अपि त्यक्त्वा निहन्ति द्विपं
सर्वः कृच्छ्रगतोऽपि वाञ्छन्ति जनः सत्त्वानुरूपं फलं । । १.३० । ।
लाङ्गूलचालनं अधश्चरणावपातं
भूमौ निपत्य वदनोदरदर्शनं च ।
श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु
धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङ्क्ते । । १.३१ । ।
परिवर्तिनि संसारे
मृतः को वा न जायते ।
स जातो येन जातेन
याति वंशः समुन्नतिं । । १.३२ । ।
कुसुमस्तवकस्येव
द्वयी वृत्तिर्मनस्विनः ।
मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य
शीर्यते वन एव वा । । १.३३ । ।
सन्त्यन्येऽपि बृहस्पतिप्रभृतयः सम्भाविताः पञ्चषास्
तान्प्रत्येष विशेषविक्रमरुची राहुर्न वैरायते ।
द्वावेव ग्रसते दिवाकरनिशाप्राणेश्वरौ भास्करौ
भ्रातः पर्वणि पश्य दानवपतिः शीर्षावशेषाकृतिः । । १.३४ । ।
वहति भुवनश्रेणिं शेषः फणाफलकस्थितां
कमठपतिना मध्येपृष्ठं सदा स च धार्यते ।
तं अपि कुरुते क्रोडाधीनं पयोधिरनादराद्
अहह महतां निःसीमानश्चरित्रविभूतयः । । १.३५ । ।
वरं पक्षच्छेदः समदमघवन्मुक्तकुलिशप्रहारैर्
उद्गच्छद्बहुलदहनोद्गारगुरुभिः ।
तुषाराद्रेः सूनोरहह पितरि क्लेशविवशे
न चासौ सम्पातः पयसि पयसां पत्युरुचितः । । १.३६ । ।
सिंहः शिशुरपि निपतति
मदमलिनकपोलभित्तिषु गजेषु ।
प्रकृतिरियं सत्त्ववतां
न खलु वयस्तेजसो हेतुः । । १.३७ । ।
जातिर्यातु रसातलं गुणगणैस्तत्राप्यधो गम्यतां
शीलं शैलतटात्पतत्वभिजनः सन्दह्यतां वह्निना ।
शौर्ये वैरिणि वज्रं आशु निपतत्वर्थोऽस्तु नः केवलं
येनैकेन विना गुणस्तृणलवप्रायाः समस्ता इमे । । १.३८ । ।
धनं अर्जय काकुत्स्थ
धनमूलं इदं जगत् ।
अन्तरं नाभिजानामि
निर्धनस्य मृतस्य च । । १.३९ । ।
तानीन्द्रियाण्यविकलानि तदेव नाम
सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव ।
अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः क्षणेन
सोऽप्यन्य एव भवतीति विचित्रं एतथ् । । १.४० । ।
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः
स पण्डितः स श्रुतवान्गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः
सर्वे गुणाः काञ्चनं आश्रयन्ति । । १.४१ । ।
दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनश्यति यतिः सङ्गात्सुतो लालनात्
विप्रोऽनध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात् ।
ह्रीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रयान्
मैत्री चाप्रणयात्समृद्धिरनयात्त्यागप्रमादाद्धनं । । १.४२ । ।
दानं भोगो नाशस्तिस्रो
गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते
तस्य तृतीया गतिर्भवति । । १.४३ । ।
मणिः शाणोल्लीढः समरविजयी हेतिदलितो
मदक्षीणो नागः शरदि सरितः श्यानपुलिनाः ।
कलाशेषश्चन्द्रः सुरतमृदिता बालवनिता
तन्निम्ना शोभन्ते गलितविभवाश्चार्थिषु नराः । । १.४४ । ।
परिक्षीणः कश्चित्स्पृहयति यवानां प्रसृतये
स पश्चात्सम्पूर्णः कलयति धरित्रीं तृणसमां ।
अतश्चानैकान्त्याद्गुरुलघुतयाऽर्थेषु धनिनाम्
अवस्था वस्तूनि प्रथयति च सङ्कोचयति च । । १.४५ । ।
राजन्दुधुक्षसि यदि क्षितिधेनुं एतां
तेनाद्य वत्सं इव लोकं अमुं पुषाण
तस्मिंश्च सम्यगनिशं परिपोष्यमाणे
नानाफलैः फलति कल्पलतेव भूमिः । । १.४६ । ।
सत्यानृता च परुषा प्रियवादिनी च
हिंस्रा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या ।
नित्यव्यया प्रचुरनित्यधनागमा च
वाराङ्गनेव नृपनीतिरनेकरूपा । । १.४७ । ।
आज्ञा कीर्तिः पालनं ब्राह्मणानां
दानं भोगो मित्रसंरक्षणं च
येषां एते षड्गुणा न प्रवृत्ताः
कोऽर्थस्तेषां पार्थिवोपाश्रयेण । । १.४८ । ।
यद्धात्रा निजभालपट्टलिखितं स्तोकं महद्वा धनं
तत्प्राप्नोति मरुस्थलेऽपि नितरां मेरौ ततो नाधिकं ।
तद्धीरो भव वित्तवत्सु कृपणां वृत्तिं वृथा सा कृथाः
कूपे पश्य पयोनिधावपि घटो गृह्णाति तुल्यं जलं । । १.४९ । ।
त्वं एव चातकाधारोऽ
सीति केषां न गोचरः ।
किं अम्भोदवरास्माकं
कार्पण्योक्तं प्रतीक्षसे । । १.५० । ।
रे रे चातक सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूयताम्
अम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः ।
केचिद्वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद्वृथा
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः । । १.५१ । ।
अकरुणत्वं अकारणविग्रहः
परधने परयोषिति च स्पृहा ।
सुजनबन्धुजनेष्वसहिष्णुता
प्रकृतिसिद्धं इदं हि दुरात्मनां । । १.५२ । ।
दुर्जनः परिहर्तव्यो
विद्ययाऽलकृतोऽपि सन् ।
मणिना भूषितः सर्पः
किं असौ न भयङ्करः । । १.५३ । ।
जाड्यं ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं
शूरे निर्घृणता मुनौ विमतिता दैन्यं प्रियालापिनि ।
तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे
तत्को नाम गुणो भवेत्स गुणिनां यो दुर्जनैर्नाङ्कितः । । १.५४ । ।
लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः
सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किं ।
सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना । । १.५५ । ।
शशी दिवसधूसरो गलितयौवना कामिनी
सरो विगतवारिजं मुखं अनक्षरं स्वाकृतेः ।
प्रभुर्धनपरायणः सततदुर्गतः सज्जनो
नृपाङ्गणगतः खलो मनसि सप्त शल्यानि मे । । १.५६ । ।
न कश्चिच्चण्डकोपानाम्
आत्मीयो नाम भूभुजां ।
होतारं अपि जुह्वानं
स्पृष्टो वहति पावकः । । १.५७ । ।
मौन्ॐऊकः प्रवचनपटुर्बाटुलो जल्पको वा
धृष्टः पार्श्वे वसति च सदा दूरतश्चाप्रगल्भः ।
क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः
सेवाधर्मः परमगहनो योगिनां अप्यगम्यः । । १.५८ । ।
उद्भासिताखिलखलस्य विशृङ्खलस्य
प्राग्जातविस्तृतनिजाधमकर्मवृत्तेः ।
दैवादवाप्तविभवस्य गुणद्विषोऽस्य
नीचस्य गोचरगतैः सुखं आप्यते । । १.५९ । ।
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण
लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।
दिनस्य पूर्वार्धपरार्धभिन्ना
छायेव मैत्री खलसज्जनानां । । १.६० । ।
मृगमीनसज्जनानां तृणजलसन्तोषविहितवृत्तीनां ।
लुब्धकधीवरपिशुना निष्कारणवैरिणो जगति । । १.६१ । ।
वाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिर्गुरौ नम्रता
विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादाद्भयं ।
भक्तिः शूलिनि शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खले
येष्वेते निवसन्ति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः । । १.६२ । ।
विपदि धैर्यं अथाभ्युदये क्षमा
सदसि वाक्यपटुता युधि विक्रमः ।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ
प्रकृतिसिद्धं इदं हि महात्मनां । । १.६३ । ।
प्रदानं प्रच्छन्नं गृहं उपगते सम्भ्रमविधिः
प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृतेः ।
अनुत्सेको लक्ष्म्यां अनभिभवगन्धाः परकथाः
सतां केनोद्दिष्टं विषमं असिधाराव्रतं इदं । । १.६४ । ।
करे श्लाघ्यस्त्यागः शिरसि गुरुपादप्रणयिता
मुखे सत्या वाणी विजयि भुजयोर्वीर्यं अतुलं ।
हृदि स्वच्छा वृत्तिः श्रुतिं अधिगतं च श्रवणयोर्
विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां मण्डनं इदं । । १.६५ । ।
सम्पत्सु महतां चित्तं
भवत्युत्पलक्ॐअलं ।आपत्सु च महाशैलशिला
सङ्घातकर्कशं । । १.६६ । ।
सन्तप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते
मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते ।
स्वात्यां सागरशुक्तिमध्यपतितं तन्मौक्तिकं जायते
प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसर्गतो जायते । । १.६७ । ।
प्रीणाति यः सुचरितैः पितरं स पुत्रो
यद्भर्तुरेव हितं इच्छति तत्कलत्रं ।
तन्मित्रं आपदि सुखे च समक्रियं यद्
एतत्त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते । । १.६८ । ।
एको देवः केशवो वा शिवो वा
ह्येकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा ।
एको वासः पत्तने वा वने वा
ह्येका भार्या सुन्दरी वा दरी वा । । १.६९ । ।
नम्रत्वेनोन्नमन्तः परगुणकथनैः स्वान्गुणान्ख्यापयन्तः
स्वार्थान्सम्पादयन्तो विततपृथुतरारम्भयत्नाः परार्थे ।
क्षान्त्यैवाक्षेपरुक्षाक्षरमुखरमुखान्दुर्जनान्दूषयन्तः
सन्तः साश्चर्यचर्या जगति बहुमताः कस्य नाभ्यर्चनीयाः । । १.७० । ।
भवन्ति नम्रास्तरवः फलोद्गमैर्
नवाम्बुभिर्दूरावलम्बिनो घनाः ।
अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः
स्वभाव एष परोपकारिणां । । १.७१ । ।
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन
दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन ।
विभाति कायः करुणपराणां
परोपकारैर्न तु चन्दनेन । । १.७२ । ।
पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्यं निगूहति गुणान्प्रकटीकरोति ।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणं इदं प्रवदन्ति सन्तः । । १.७३ । ।
पद्माकरं दिनकरो विकचीकरोति
चम्द्र्प्वोलासयति कैरवचक्रवालं ।
नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति
सन्तः स्वयं परहिते विहिताभियोगाः । । १.७४ । ।
एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परित्यजन्ति ये
सामान्यास्तु परार्थं उद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये ।
तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये
ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे । । १.७५ । ।
क्षीरेणात्मगतोदकाय हि गुणा दत्ता पुरा तेऽखिला
क्षीरोत्तापं अवेक्ष्य तेन पयसा स्वात्मा कृशानौ हुतः ।
गन्तुं पावकं उन्मनस्तदभवद्दृष्ट्वा तु मित्रापदं
युक्तं तेन जलेन शाम्यति सतां मैत्री पुनस्त्वीदृशी । । १.७६ । ।
इतः स्वपिति केशवः कुलं इतस्तदीयद्विषाम्
इतश्च शरणार्थिनां शिखरिणां गणाः शेरते ।
इतोऽपि बडवानलः सह समस्तसंवर्तकैऋ
अहो विततं ऊर्जितं भरसहं सिन्धोर्वपुः । । १.७७ । ।
तृष्णां छिन्धि भज क्षमां जहि मदं पापे रतिं मा कृथाः
सत्यं ब्रूह्यनुयाहि साधुपदवीं सेवस्व विद्वज्जनं ।
मान्यान्मानय विद्विषोऽप्यनुनय प्रख्यापय प्रश्रयं
कीर्तिं पालय दुःखिते कुरु दयां एतत्सतां चेष्टितं । । १.७८ । ।
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णास्
त्रिभुवनं उपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।
परगुणपरमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यं
निजहृदि विकसन्तः सन्त सन्तः कियन्तः । । १.७९ । ।
किं तेन हेमगिरिणा रजताद्रिणा वा
यत्राश्रिताश्च तरवस्तरवस्त एव ।
मन्यामहे मलयं एव यद्आश्रयेण
कङ्कोलनिम्बकटुजा अपि चन्दनाः स्युः । । १.८० । ।
रत्नैर्महार्हैस्तुतुषुर्न देवा
न भेजिरे भीमविषेण भीतिं ।
सुधां विना न परयुर्विरामं
न निश्चितार्थाद्विरमन्ति धीराः । । १.८१ । ।
क्वचित्पृथ्वीशय्यः क्वचिदपि च परङ्कशयनः
क्वचिच्छाकाहारः क्वचिदपि च शाल्योदनरुचिः ।
क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो
मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखं । । १.८२ । ।
ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो
ज्ञानस्योपशमः श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः ।
अक्रोधस्तपसः क्षमा प्रभवितुर्धर्मस्य निर्वाजता
सर्वेषां अपि सर्वकारणं इदं शीलं परं भूषणं । । १.८३ । ।
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्ठं ।
अद्यैव वा मरणं अस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः । । १.८४ । ।
भग्नाशस्य करण्डपिण्डिततनोर्म्लानेन्द्रियस्य क्षुधा
कृत्वाखुर्विवरं स्वयं निपतितो नक्तं मुखे भोगिनः ।
तृप्तस्तत्पिशितेन सत्वरं असौ तेनैव यातः यथा
लोकाः पश्यत दैवं एव हि नृणां वृद्धौ क्षये कारणं । । १.८५ । ।
आलस्यं हि मनुष्याणां
शरीरस्थो महान्रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः
कुर्वाणो नावसीदति । । १.८६ । ।
छिन्नोऽपि रोहति तर्क्षीणोऽप्युपचीयते पुनश्चन्द्रः ।
इति विमृशन्तः सन्तः सन्तप्यन्ते न दुःखेषु । । १.८७ । ।
नेता यस्य बृहस्पतिः प्रहरणं वज्रं सुराः सैनिकाः
स्वर्गो दुर्गं अनुग्रहः किल हरेरैरावतो वारणः ।
इत्यैश्वर्यबलान्वितोऽपि बलभिद्भग्नः परैः सङ्गरे
तद्व्यक्तं ननु दैवं एव शरणं धिग्धिग्वृथा पौरुषं । । १.८८ । ।
कर्मायत्तं फलं पुंसां
बुद्धिः कर्मानुसारिणी ।
तथापि सुधिया भाव्यं
सुविचार्यैव कुर्वता । । १.८९ । ।
खल्वातो दिवसेश्वरस्य किरणैः सन्ताडितो मस्तके
वाञ्छन्देशं अनातपं विधिवशात्तालस्य मूलं गतः ।
तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः
प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रैव यान्त्यापदः । । १.९० । ।
रविनिशाकरयोर्ग्रहपीडनं
गजभुजङ्गमयोरपि बन्धनं ।
मतिमतां च विलोक्य दरिद्रतां
विधिरहो बलवानिति मे मतिः । । १.९१ । ।
सृजति तावदशेषगुणकरं
पुरुषरत्नं अलङ्करणं भुवः ।
तदपि तत्क्षणभङ्गि करोति
चेदहह कष्टं अपण्डितता विधेः । । १.९२ । ।
पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम्
नोलूकोऽप्यवओकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणं ।
धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम्
यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः । । १.९३ । ।
नमस्यामो देवान्ननु हतविधेस्तेऽपि वशगा
विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियतकर्मैकफलदः ।
फलं कर्मायत्तं यदि किं अमरैः किं च विधिना
नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति । । १.९४ । ।
ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माडभाण्डोदरे
विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे ।
रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः
सूर्यो भ्राम्यति नित्यं एव गगने तस्मै नमः कर्मणे । । १.९५ । ।
नैवाकृतिः फलति नैवा कुलं न शीलं
विद्यापि नैव न च यत्नकृतापि सेवा ।
भाग्यानि पूर्वतपसा खलु सञ्चितानि
काले फलन्ति पुरुषस्य यथैव वृक्षाः । । १.९६ । ।
वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये
महार्णवे पर्वतमस्तके वा ।
सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा
रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि । । १.९७ । ।
या साधूंश्च खलान्करोति विदुषो मूर्खान्हितान्द्वेषिणः
प्रत्यक्षं कुरुते परीक्षं अमृतं हालाहलं तत्क्षणात् ।
तां आराधय सत्क्रियां भगवतीं भोक्तुं फलं वाञ्छितं
हे साधो व्यसनैर्गुणेषु विपुलेष्वास्थां वृथा मा कृथाः । । १.९८ । ।
गुणवदगुणवद्वा कुर्वता कार्यजातं
परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन ।
अतिरभसकृतानां कर्मणां आविपत्तेर्
भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः । । १.९९ । ।
स्थाल्यां वैदूर्यमय्यां पचति तिलकणांश्चन्दनैरिन्धनौघैः
सौवर्णैर्लाङ्गलाग्रैर्विलिखति वसुधां अर्कमूलस्य हेतोः ।
कृत्वा कर्पूरखण्डान्वृत्तिं इह कुरुते कोद्रवाणां समन्तात्
प्राप्येमां कर्म्भूमिं न चरति मनुजो यस्तोप मन्दभाग्यः । । १.१०० । ।
मज्जत्वम्भसि यातु मेरुशिखरं शत्रुं जयत्वाहवे
वाणिज्यं कृषिसेवने च सकला विद्याः कलाः शिक्षतां ।
आकाशं विपुलं प्रयातु खगवत्कृत्वा प्रयत्नं परं
नाभाव्यं भवतीह कर्मवशतो भाव्यस्य नाशः कुतः । । १.१०१ । ।
भीमं वनं भवति तस्य पुरं प्रधानं
सर्वो जनः स्वजनतां उपयाति तस्य ।
कृत्स्ना च भूर्भवति सन्निधिरत्नपूर्णा
यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं नरस्य । । १.१०२ । ।
को लाभो गुणिसङ्गमः किं असुखं प्राज्ञेतरैः सङ्गतिः
का हानिः समयच्युतिर्निपुणता का धर्मतत्त्वे रतिः ।
कः शूरो विजितेन्द्रियः प्रियतमा काऽनुव्रता किं धनं
विद्या किं सुखं अप्रवासगमनं राज्यं किं आज्ञाफलं । । १.१०३ । ।
अप्रियवचनदरिद्रैः प्रियवचनधनाढ्यैः स्वदारपरितुष्टैः ।
परपरिवादनिवृत्तैः क्वचित्क्वचिन्मण्डिता वसुधा । । १.१०४ । ।
कदर्थितस्यापि हि धैर्यवृत्तेर्
न शक्यते धैर्यगुणः प्रमार्ष्टुं ।
अध्ॐउखस्यापि कृतस्य वह्नेर्
नाधः शिखा याति कदाचिदेव । । १.१०५ । ।
कान्ताकटाक्षविशिखा न लुनन्ति यस्य
चित्तं न निर्दहति किपकृशानुतापः ।
कर्षन्ति भूरिविषयाश्च न लोभपाशैर्
लोकत्रयं जयति कृत्स्नं इदं स धीरः । । १.१०६ । ।
एकेनापि हि शूरेण
पादाक्रान्तं महीतलं ।
क्रियते भास्करेणैव
स्फारस्फुरिततेजसा । । १.१०७ । ।
वह्निस्तस्य जलायते जलनिधिः कुल्यायते तत्क्षणान्
मेरुः स्वल्पशिलायते मृगपतिः सद्यः कुरङ्गायते ।
व्यालो माल्यगुणायते विषरसः पीयूषवर्षायते
यस्याङ्गेऽखिललोकवल्लभतमं शीलं समुन्मीलति । । १.१०८ । ।
लज्जागुणौघजननीं जननीं इव स्वाम्
अत्यन्तशुद्धहृदयां अनुवर्तमानां ।
तेजस्विनः सुखं असूनपि सन्त्यजनति
सत्यव्रतव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञां । । १.१०९ । ।

मुंशी प्रेमचन्द- रोचक कहानियाँ

पूस की रात
हल्कू ने आकर स्त्री से कहा-सहना आया है । लाओं, जो रुपये रखे हैं, उसे दे दूँ, किसी तरह गला तो छूटे ।
मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिरकर बोली-तीन ही रुपये हैं, दे दोगे तो कम्मल कहॉँ से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी ? उससे कह दो, फसल पर दे देंगें। अभी नहीं ।
हल्कू एक क्षण अनिशिचत दशा में खड़ा रहा । पूस सिर पर आ गया, कम्बल के बिना हार मे रात को वह किसी तरह सो नहीं सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमावेगा, गालियॉं देगा। बला से जाड़ों मे मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी । यह सोचता हुआ वह अपना भारी-भरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठ सिध्द करता था ) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला-दे दे, गला तो छूटे ।कम्मल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचँगा ।
मुन्नी उसके पास से दूर हट गई और ऑंखें तरेरती हुई बोली-कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूँ तो कौन-सा उपाय करोगे ? कोई खैरात दे देगा कम्मल ? न जान कितनी बाकी है, जों किसी तरह चुकने ही नहीं आती । मैं कहती हूं, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते ? मर-मर काम करों, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुटटी हुई । बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ हैं । पेट के लिए मजूरी करों । ऐसी खेती से बाज आयें । मैं रुपयें न दूँगी, न दूँगी ।
हल्कू उदास होकर बोला-तो क्या गाली खाऊँ ?
मुन्नी ने तड़पकर कहा-गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है ?
मगर यह कहने के साथ् ही उसकी तनी हुई भौहें ढ़ीली पड़ गई । हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भॉँति उसे घूर रहा था ।
उसने जाकर आले पर से रुपये निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए। फिर बोली-तुम छोड़ दो अबकी से खेती । मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी । किसी की धौंस तो न रहेगी । अच्छी खेती है ! मजूरी करके लाओं, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर धौंस ।
हल्कू न रुपयें लिये और इस तरह बाहर चला, मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हों । उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-काटकर तीन रुपये कम्बल के लिए जमा किए थें । वह आज निकले जा रहे थे । एक-एक पग के साथ उसका मस्तक पानी दीनता के भार से दबा जा रहा था ।

2

पूस की अँधेरी रात ! आकाश पर तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पतों की एक छतरी के नीचे बॉस के खटाले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा कॉप रहा था । खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट मे मुँह डाले सर्दी से कूँ-कूँ कर रहा था । दो मे से एक को भी नींद नहीं आ रही थी ।
हल्कू ने घुटनियों कों गरदन में चिपकाते हुए कहा-क्यों जबरा, जाड़ा लगता है ? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रह, तो यहॉँ क्या लेने आये थें ? अब खाओं ठंड, मै क्या करूँ ? जानते थें, मै। यहॉँ हलुआ-पूरी खाने आ रहा हूँ, दोड़े-दौड़े आगे-आगे चले आये । अब रोओ नानी के नाम को ।
जबरा ने पड़े-पड़े दुम हिलायी और अपनी कूँ-कूँ को दीर्घ बनाता हुआ कहा-कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठंडे हो जाओगे । यीह रांड पछुआ न जाने कहाँ से बरफ लिए आ रही हैं । उठूँ, फिर एक चिलम भरूँ । किसी तरह रात तो कटे ! आठ चिलम तो पी चुका । यह खेती का मजा हैं ! और एक भगवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा आए तो गरमी से घबड़ाकर भागे। मोटे-मोटे गददे, लिहाफ, कम्बल । मजाल है, जाड़े का गुजर हो जाए । जकदीर की खूबी ! मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें !
हल्कू उठा, गड्ढ़े मे से जरा-सी आग निकालकर चिलम भरी । जबरा भी उठ बैठा ।
हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा-पिएगा चिलम, जाड़ा तो क्या जाता हैं, हॉँ जरा, मन बदल जाता है।
जबरा ने उनके मुँह की ओर प्रेम से छलकता हुई ऑंखों से देखा ।
हल्कू-आज और जाड़ा खा ले । कल से मैं यहाँ पुआल बिछा दूँगा । उसी में घुसकर बैठना, तब जाड़ा न लगेगा ।
जबरा ने अपने पंजो उसकी घुटनियों पर रख दिए और उसके मुँह के पास अपना मुँह ले गया । हल्कू को उसकी गर्म सॉस लगी ।
चिलम पीकर हल्कू फिर लेटा और निश्चय करके लेटा कि चाहे कुछ हो अबकी सो जाऊँगा, पर एक ही क्षण में उसके हृदय में कम्पन होने लगा । कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट, पर जाड़ा किसी पिशाच की भॉँति उसकी छाती को दबाए हुए था ।
जब किसी तर न रहा गया, उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसक सिर को थपथपाकर उसे अपनी गोद में सुला लिया । कुत्ते की देह से जाने कैसी दुर्गंध आ रही थी, पर वह उसे अपनी गोद मे चिपटाए हुए ऐसे सुख का अनुभव कर रहा था, जो इधर महीनों से उसे न मिला था । जबरा शायद यह समझ रहा था कि स्वर्ग यहीं है, और हल्कू की पवित्र आत्मा में तो उस कुत्ते के प्रति घृणा की गंध तक न ,थी । अपने किसी अभिन्न मित्र या भाई को भी वह इतनी ही तत्परता से गले लगाता । वह अपनी दीनता से आहत न था, जिसने आज उसे इस दशा कोपहुंचा दिया । नहीं, इस अनोखी मैत्री ने जैसे उसकी आत्मा के सब द्वार खोल दिए थे और उनका एक-एक अणु प्रकाश से चमक रहा था ।
सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई । इस विशेष आत्मीयता ने उसमे एक नई स्फूर्ति पैदा कर रही थी, जो हवा के ठंडें झोकों को तुच्छ समझती थी । वह झपटकर उठा और छपरी से बाहर आकर भूँकने लगा । हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया, पर वह उसके पास न आया । हार मे चारों तरफ दौड़-दौड़कर भूँकता रहा। एक क्षण के लिए आ भी जाता, तो तुरंत ही फिर दौड़ता । कर्त्तव्य उसके हृदय में अरमान की भाँति ही उछल रहा था ।

3

एक घंटा और गुजर गया। रात ने शीत को हवा से धधकाना शुरु किया।
हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठंड कम न हुई, ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया हैं, धमनियों मे रक्त की जगह हिम बह रहीं है। उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी रात बाकी है ! सप्तर्षि अभी आकाश में आधे भी नहीं चढ़े । ऊपर आ जाऍंगे तब कहीं सबेरा होगा । अभी पहर से ऊपर रात हैं ।
हल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर आमों का एक बाग था । पतझड़ शुरु हो गई थी । बाग में पत्तियो को ढेर लगा हुआ था । हल्कू ने सोच, चलकर पत्तियों बटोरूँ और उन्हें जलाकर खूब तापूँ । रात को कोई मुझें पत्तियों बटारते देख तो समझे, कोई भूत है । कौन जाने, कोई जानवर ही छिपा बैठा हो, मगर अब तो बैठे नहीं रह जाता ।
उसने पास के अरहर के खेत मे जाकर कई पौधें उखाड़ लिए और उनका एक झाड़ू बनाकर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिये बगीचे की तरफ चला । जबरा ने उसे आते देखा, पास आया और दुम हिलाने लगा ।
हल्कू ने कहा-अब तो नहीं रहा जाता जबरू । चलो बगीचे में पत्तियों बटोरकर तापें । टॉटे हो जाऍंगे, तो फिर आकर सोऍंगें । अभी तो बहुत रात है।
जबरा ने कूँ-कूँ करें सहमति प्रकट की और आगे बगीचे की ओर चला।
बगीचे में खूब अँधेरा छाया हुआ था और अंधकार में निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था । वृक्षों से ओस की बूँदे टप-टप नीचे टपक रही थीं ।
एकाएक एक झोंका मेहँदी के फूलों की खूशबू लिए हुए आया ।
हल्कू ने कहा-कैसी अच्छी महक आई जबरू ! तुम्हारी नाक में भी तो सुगंध आ रही हैं ?
जबरा को कहीं जमीन पर एक हडडी पड़ी मिल गई थी । उसे चिंचोड़ रहा था ।
हल्कू ने आग जमीन पर रख दी और पत्तियों बठारने लगा । जरा देर में पत्तियों का ढेर लग गया था । हाथ ठिठुरे जाते थें । नगें पांव गले जाते थें । और वह पत्तियों का पहाड़ खड़ा कर रहा था । इसी अलाव में वह ठंड को जलाकर भस्म कर देगा ।
थोड़ी देर में अलावा जल उठा । उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी । उस अस्थिर प्रकाश में बगीचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थें, मानो उस अथाह अंधकार को अपने सिरों पर सँभाले हुए हों । अन्धकार के उस अनंत सागर मे यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था ।
हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था । एक क्षण में उसने दोहर उताकर बगल में दबा ली, दोनों पॉवं फैला दिए, मानों ठंड को ललकार रहा हो, तेरे जी में आए सो कर । ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था ।
उसने जबरा से कहा-क्यों जब्बर, अब ठंड नहीं लग रही है ?
जब्बर ने कूँ-कूँ करके मानो कहा-अब क्या ठंड लगती ही रहेगी ?
‘पहले से यह उपाय न सूझा, नहीं इतनी ठंड क्यों खातें ।’
जब्बर ने पूँछ हिलायी ।
अच्छा आओ, इस अलाव को कूदकर पार करें । देखें, कौन निकल जाता है। अगर जल गए बचा, तो मैं दवा न करूँगा ।
जब्बर ने उस अग्नि-राशि की ओर कातर नेत्रों से देखा !
मुन्नी से कल न कह देना, नहीं लड़ाई करेगी ।
यह कहता हुआ वह उछला और उस अलाव के ऊपर से साफ निकल गया । पैरों में जरा लपट लगी, पर वह कोई बात न थी । जबरा आग के गिर्द घूमकर उसके पास आ खड़ा हुआ ।
हल्कू ने कहा-चलो-चलों इसकी सही नहीं ! ऊपर से कूदकर आओ । वह फिर कूदा और अलाव के इस पार आ गया ।

4

पत्तियॉँ जल चुकी थीं । बगीचे में फिर अँधेरा छा गया था । राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाकी थी, जो हवा का झोंका आ जाने पर जरा जाग उठती थी, पर एक क्षण में फिर ऑंखे बन्द कर लेती थी !
हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा हुआ एक गीत गुनगुनाने लगा । उसके बदन में गर्मी आ गई थी, पर ज्यों-ज्यों शीत बढ़ती जाती थी, उसे आलस्य दबाए लेता था ।
जबरा जोर से भूँककर खेत की ओर भागा । हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुण्ड खेत में आया है। शायद नीलगायों का झुण्ड था । उनके कूदने-दौड़ने की आवाजें साफ कान में आ रही थी । फिर ऐसा मालूम हुआ कि खेत में चर रहीं है। उनके चबाने की आवाज चर-चर सुनाई देने लगी।
उसने दिल में कहा-नहीं, जबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता। नोच ही डाले। मुझे भ्रम हो रहा है। कहॉँ! अब तो कुछ नहीं सुनाई देता। मुझे भी कैसा धोखा हुआ!
उसने जोर से आवाज लगायी-जबरा, जबरा।
जबरा भूँकता रहा। उसके पास न आया।
फिर खेत के चरे जाने की आहट मिली। अब वह अपने को धोखा न दे सका। उसे अपनी जगह से हिलना जहर लग रहा था। कैसा दँदाया हुआ बैठा था। इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना असह्य जान पड़ा। वह अपनी जगह से न हिला।
उसने जोर से आवाज लगायी-हिलो! हिलो! हिलो!
जबरा फिर भूँक उठा । जानवर खेत चर रहे थें । फसल तैयार हैं । कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किए डालते है।
हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला, पर एकाएक हवा कस ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा ।
जबरा अपना गला फाड़ डालता था, नील गाये खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था । अकर्मण्यता ने रस्सियों की भॉति उसे चारों तरफ से जकड़ रखा था।
उसी राख के पस गर्म जमीन परद वही चादर ओढ़ कर सो गया ।
सबेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ धूप फैली गई थी और मुन्नी की रही थी-क्या आज सोते ही रहोगें ? तुम यहॉ आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया ।
हल्कू न उठकर कहा-क्या तू खेत से होकर आ रही है ?
मुन्नी बोली-हॉँ, सारे खेत कासत्यनाश हो गया । भला, ऐसा भी कोई सोता है। तुम्हारे यहॉ मँड़ैया डालने से क्या हुआ ?
हल्कू ने बहाना किया-मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी हैं। पेट में ऐसा दरद हुआ, ऐसा दरद हुआ कि मै नहीं जानता हूँ !
दोनों फिर खेत के डॉँड पर आयें । देखा सारा खेत रौदां पड़ा हुआ है और जबरा मॅड़ैया के नीचे चित लेटा है, मानो प्राण ही न हों ।
दोनों खेत की दशा देख रहे थें । मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी, पर हल्कू प्रसन्न था ।
मुन्नी ने चिंतित होकर कहा-अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी।
हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा-रात को ठंड में यहॉ सोना तो न पड़ेगा।