tag:blogger.com,1999:blog-22546084460264085462024-03-13T14:57:15.509-07:00पाञ्चजन्यRajhttp://www.blogger.com/profile/17416312611933993115noreply@blogger.comBlogger14125tag:blogger.com,1999:blog-2254608446026408546.post-1413326819718911442016-03-30T14:04:00.003-07:002016-03-30T14:04:11.343-07:00बेरोजगार का प्रेम प्रसंग <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बनारस में सबसे पहले अगर कहीं सुबह होती है तो प्रहलाद घाट मुहल्ले में।<br />
जैसे ही सवा छह हुआ कि दो बातें एक साथ होती हैं।<br />
जगेसर मिसिबीर सूर्य भगवान को जल चढ़ाते हैं।<br />
दूसरी ये कि परमिला नहा कर छत पर कपड़े फैलाने आ जाती है।<br />
<br />
मिसिर जी के होंठ कहते हैं- "ओम् सूर्याय नम:"<br />
और<br />
दिल कहता है-<br />
'मेरे सामने वाली खिड़की में एक चाँद का टुकड़ा रहता है'।<br />
<br />
इसी सूर्य और चंद्र के बीच जगेसर बाबा साढ़े तीन साल से झूल रहे हैं।<br />
<br />
आज जगेसर जी तीन लोटा जल चढ़ा चुके थे पर उनका 'चांद' नहीं दिखा।<br />
फिर चौथा लोटा<br />
<br />
फिर पांचवा..... ...<br />
दसवां।<br />
पंडितजी अब परेशान कि आखिर मामला क्या है?<br />
<br />
अब तक तो 'चाँद' दिख जाता था।<br />
सामने से सनिचरा गाना गाते हुए जा रहा है...<br />
<br />
"मेरा सनम सबसे प्यारा है...सबसे...।"<br />
<br />
जगेसर जल्दी से घर में आते हैं।<br />
फेसबुक स्टेट्स चेक करते हैं।<br />
परमिला ने आज गुडमार्निंग का मैसेज भी नहीं भेजा।<br />
फोन करते हैं कालर टोन सुनाई देता है.....<br />
ओम् त्र्यम्बकं यजामहे......।<br />
<br />
दुबारा तिबारा फोन करते हैं।<br />
<br />
<br />
पाँच मिनट बाद फोनउठता है। पण्डितजी व्यग्रता से पूछते हैं-<br />
<br />
"अरे कहां हो जी?"..<br />
<br />
"आज दिखी ही नहीं....<br />
तबीयत ठीक ठाक है न?"<br />
<br />
उधर की आवाज़- "पंडीजी हमरा बियाह तय हो गया है।..<br />
<br />
अब हम छत पर नहीं आ सकते। .....<br />
फोन भी मत कीजिएगा।.....<br />
फेसबुक पर हम आपको ब्लॉक कर दिए हैं।...<br />
बाबूजी कह रहे थे कि बेरोजगार से बियाह करके हम लड़की को........." <br />
<br />
जगेसर बात काटते हैं-<br />
"अरे तो हमको नौकरी मिलेगी नहीं का?"<br />
परमिला डाँटती है-<br />
<br />
"चुप करिए पंडीजी!<br />
2008 में जब आप बी०एड्० करते थे तब से एही कह रहे हैं।......<br />
बिना दूध का लईका कौ साल जिलाएंगे??"<br />
<br />
दिन के दस बज रहे हैं। तापमान अभी सैंतालीस के आसपास हो गया है।पूरा अस्सी घाट खाली हो गया है। दो चार नावें दूर गंगा में सरक रही हैं। चमकती जल धारा में सूर्य का वजूद हिल रहा है। कुछ बच्चे अभी भी नदी में खेल रहे हैं।<br />
<br />
पंडीजी सीढ़ियों पर बैठे अपना नाम दुहराते हैं-<br />
"पंडित जगेश्वर मिश्र शास्त्री<br />
प्रथम श्रेणी,<br />
आचार्य,<br />
गोल्ड मेडलिस्ट,<br />
नेट क्वालीफाईड,<br />
बीएड 73%,<br />
<br />
2011 में लेक्चरर का फार्म डाला अभी तक परीक्षा नहीं हुई।<br />
<br />
2013 में परीक्षा दी,<br />
नौ सवाल ही गलत आए थे और तीन सवालों के जवाब बोर्ड गलत बता रहा है।<br />
<br />
मतलब साफ है इसमें भीकोई चांस नहीं।<br />
<br />
डायट प्रवक्ता से लेकर उच्चतर तक की परीक्षा ठीक हुई है। पर छह महीने बाद भी भर्तीका पता नहीं।<br />
<br />
प्राईमरी टेट में 105 अंक हैं। मतलब इसमें भी चांस नहीं।<br />
<br />
2012 में पी०एचडी० प्रवेश परीक्षा पास की थी पर अभी तक किसी विश्वविद्यालय ने प्रवेश ही नहीं लिया।<br />
<br />
तभी बलराम पांडे कन्धे पर हाथ रखते हैं-<br />
"अरे शास्त्री जी!..<br />
पहला मिठाई आप खाइए।"..<br />
हमरा शादी तय हो गया है।.....<br />
<br />
पं०रामविचार पांडे की लड़की परमिला से।<br />
आप मेरा हाईस्कूल, इण्टर का कापी न लिखे होते तो<br />
हमारा एतना अच्छा नंबर नहीं आता।<br />
न हम शिक्षामित्र हुए होते।<br />
न आज मास्टर बन पाते।<br />
न आज एमे पास सुन्दर लड़की से बियाह होता।"<br />
<br />
जगेसर मिसिर के हाथ में लड्डू कांप रहा है।<br />
तभी बलराम पांडे फिर बोलते हैं-<br />
<br />
"अच्छा!<br />
'अग्नये स्वाहा' में कौन विभक्ति होती है एक बार फिर समझा दिजियेगा...<br />
कोई पूछ दिया तो ससुरा बेइज्जती खराब हो जाएगी।"<br />
<br />
जगेसर नशे की सी हालत में घर में घुसते हैं।<br />
हवन- सामग्री तैयार करते हैं।<br />
<br />
और<br />
हवन पर बैठ जाते हैं। अबअग्नि में समिधाएँ जल रही हैं।<br />
<br />
अचानक उठते हैं और अपने सारे अंकपत्र-प्रमाणपत्र अग्नि में डाल देते हैं।<br />
और<br />
चिल्लाते हैं-<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
"अग्नये स्वाहा!<br />
अग्नये स्वाहा!!...<br />
<br />
चतुर्थीविभक्ति एक वचन...<br />
<br />
चतुर्थी विभक्ति एक वचन!!"<br />
<br />
और<br />
<br />
मूर्छित होकर वहीं गिर पड़ते हैं।<br />
<br />
अगले दिन के अखबार में वही रोज की खबरें होंगी- <br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
गर्मी ने ली एक और व्यक्ति की जान .....</div>
Rajhttp://www.blogger.com/profile/17416312611933993115noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2254608446026408546.post-89917082356872333102015-11-18T09:57:00.000-08:002015-11-18T09:57:01.744-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
Please do watch this Devi Geet devoted to Maa Vindhyavasini<br />
<a href="https://www.youtube.com/watch?v=PSYFvX98_34">https://www.youtube.com/watch?v=PSYFvX98_34</a></div>
Rajhttp://www.blogger.com/profile/17416312611933993115noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2254608446026408546.post-85042339391895740502015-11-06T11:55:00.000-08:002015-11-06T11:55:11.980-08:00हमसफर <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जिन्दगी में इश्क का था इक बड़ा सा आसियाना,<br />
उनके आने की खबर से दिल बना था आशिकाना।<br />
<br />
इश्क की ये इन्तहा थी जिन्दगी की राहों में,<br />
उनके बारे में था सोचा वो बनेंगे हमसफर।<br />
महफिले गुलजार होती उनके आने के लिए,<br />
गर वो आते जिन्दगी में बनकर मेरे सामियाना।<br />
<br />
राह ए उल्फत की नजर में वो थे मेरे हमसफर,<br />
पर न जाने किसलिए थी उनको न इसकी खबर।<br />
हमने चाहा तो बहुत था उनको पाने के लिए,<br />
पर नहीं था उनके मन में इक भी ऐसा सूफियाना।<br />
<br />
रजनीश </div>
Rajhttp://www.blogger.com/profile/17416312611933993115noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2254608446026408546.post-23668156494403342042013-12-16T12:59:00.000-08:002013-12-16T12:59:34.623-08:00चाहत.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">चाहतों की चाहतें, चाहत ही बनकर रह गयी।</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">उनको पाने की तमन्ना ख्वाहिशें ही रह गयी॥</span><br />
<br style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;" />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">कुछ तो उनमें बात थी जो, दिल तड़प कर रह गया।</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">उनकी अदाएँ देखकर, दिल मचल के रह गया॥</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">भावनाओं में थी मासूमियत की कुछ ऐसी लहर।</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">अ़क्लमन्दी की सारी क़यासें उनमें बहकर रह गयी॥</span><br />
<br style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;" />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">परम्पराओं में कुछ इस तरह जकड़ा हुआ था मेरा मन।</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">इश्क़ पाने की तमन्ना उनमें जकड़कर ही रह गयी॥</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">ग़ौर करता हूँ कभी मै, मासूमियत उनके चेहरे की।</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">पर मासूम तो था दिल भी मेरा, मासूम बनकर रह गया॥</span><br />
<br style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;" />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">इश्क़बाज़ी की भला इससे बड़ी इन्तहाँ क्या और होगी।</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">हम चाहते रहें इतना उनको, पर वो इनकारते ही रह गये॥</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">ज़िन्दगी के सफ़र में इससे बड़ा सदमा था न कोई।</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">चाहते थे जिनको दिल से, उनके मन में नफ़रतें ही रह गयीं॥</span><br />
<br style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;" />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">ख़्वाबों में मेरे आये कुछ इस तरह वो ख़्वाब बनकर।</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">फिर से उनको पाने की तमन्ना दिल में मचल गयी॥</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">हैरान हूँ मैं अपने दिल के नफ़रतों के अन्दाज़ से।</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">नफ़रतों से नफ़रत करके वो प्यार में ही बह गया॥</span><br />
<br style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;" />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">चाहतों की भला इससे बड़ी सज़ा क्या और होगी।</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;">चाहतों की चाहतें चाहत ही बनकर रह गयीं॥</span><br />
<div>
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatino, serif; font-size: 15px; line-height: 20px; text-align: center;"><br /></span></div>
</div>
Rajhttp://www.blogger.com/profile/17416312611933993115noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2254608446026408546.post-87866540914693217022013-05-02T15:29:00.002-07:002013-05-02T15:35:59.544-07:00...लेकिन मैं कह नहीं पाया!!!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
चाहा तो बहुत उसको,<br />
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥<br />
बचपन साथ साथ पला,<br />
जवानी साथ साथ बढ़ा।<br />
शायद वो भी चाहती मुझको,<br />
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥<br />
<br />
बचपन उंगली पकड़कर बीता,<br />
जवानी हाथ पकड़कर चलती।<br />
शायद उसको भी मेरे साथ का था इन्तज़ार,<br />
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥<br />
<br />
आज जब मैं सोचता हूँ बचपन के वो दिन,<br />
आम के छाँव के तले बिताये वो पल।<br />
कहता उससे तो उसे भी आता याद,<br />
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥<br />
<br />
शायद कोई अनजान सा डर था मन में,<br />
जान कर भी उसको, अनजान बनता था उससे।<br />
शायद वो भी पहचान लेती मुझे,<br />
लेकिन मैं कह नहीं पाया।<br />
<br />
कमी यही रह गयी मुझमें कि,<br />
रिश्ते निभाने में रह गया पीछे।<br />
खुद आगे बढ़कर हाथ थामता उसका,<br />
तो आज बात कुछ और ही होती,<br />
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥<br />
<br />
कहीं न कहीं उसकी भी गलती थी,<br />
क्या मुझे वह नहीं जानती थी।<br />
वो कह दे तो कह दे वरना,<br />
हम कभी एक ना हो पायेंगे,<br />
चाहते तो हम भी हैं उसको बहुत,<br />
लेकिन ये बताये कौन उसको ।<br />
चाहतें शायद नया इतिहास रचती,<br />
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥<br />
<br />
<br /></div>
Rajhttp://www.blogger.com/profile/17416312611933993115noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-2254608446026408546.post-51394160558199082832011-08-04T12:44:00.000-07:002011-11-08T09:19:26.748-08:00भर्तृहरेः शतकत्रयी-०१नीतिशतकम्<br />भर्तृहरेः<br />दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्तये ।<br />स्वानुभूत्य्एकमानाय नमः शान्ताय तेजसे । । १.१ । ।<br />बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः<br />प्रभवः स्मयदूषिताः ।<br />अबोधोपहताः चान्ये<br />जीर्णं अङ्गे सुभाषितं । । १.२ । ।<br />अज्ञः सुखं आराध्यः<br />सुखतरं आराध्यते विशेषज्ञः ।<br />ज्ञानलवदुर्विदग्धं<br />ब्रह्मापि तं नरं न रञ्जयति । । १.३ । ।<br />प्रसह्य मणिं उद्धरेन्मकरवक्त्रदंष्ट्रान्तरात्<br />समुद्रं अपि सन्तरेत्प्रचलदूर्मिमालाकुलं ।<br />भुजङ्गं अपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारयेत्<br />न तु प्रतिनिविष्टमूऋखजनचित्तं आराधयेथ् । । १.४ । ।<br />लभेत सिकतासु तैलं अपि यत्नतः पीडयन्<br />पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः ।<br />क्वचिदपि पर्यटन्शशविषाणं आसादयेत्<br />न तु प्रतिनिविष्टमूर्खचित्तं आराधयेथ् । । १.५ । ।<br />व्यालं बालमृणालतन्तुभिरसौ रोद्धुं<br /> समुज्जृम्भते<br />छेत्तुं वज्रमणिं शिरीषकुसुमप्रान्तेन सन्नह्यति ।<br />माधुर्यं मधुबिन्दुना रचयितुं क्षारामुधेरीहते<br />नेतुं वाञ्छन्ति यः खलान्पथि सतां सूक्तैः सुधास्यन्दिभिः । । १.६ । ।<br />स्वायत्तं एकान्तगुणं विधात्रा<br />विनिर्मितं छादनं अज्ञतायाः ।<br />विशेषतः सर्वविदां समाजे<br />विभूषणं मौनं अपण्डितानां । । १.७ । ।<br />यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं<br />तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः<br />यदा किञ्चित्किञ्चिद्बुधजनसकाशादवगतं<br />तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः । । १.८ । ।<br />कृमिकुलचित्तं लालाक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितं<br />निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषं ।<br />सुरपतिं अपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते<br />न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुतां । । १.९ । ।<br />शिरः शार्वं स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं<br />म्हीध्रादुत्तुङ्गादवनिं अवनेश्चापि जलधिं ।<br />अधोऽधो गङ्गेयं पदं उपगता स्तोकम्<br />अथवाविवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः । । १.१० । ।<br />शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक्च्छत्रेण सूर्यातपो<br />नागेन्द्रो निशिताग्कुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभौ ।<br />व्याधिर्भेषजसङ्ग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगैर्विषं<br />सर्वस्यौषधं अस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नस्त्यौषधिं । । १.११ । ।<br />साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः<br />साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।<br />तृणं न खादन्नपि जीवमानस्<br />तद्भागधेयं परमं पशूनां । । १.१२ । ।<br />येषां न विद्या न तपो न दानं<br />ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।<br />ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता<br />मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति । । १.१३ । ।<br />वरं पर्वतदुर्गेषु<br />भ्रान्तं वनचरैः सह<br />न मूर्खजनसम्पर्कः<br />सुरेन्द्रभवनेष्वपि । । १.१४ । ।<br />शास्त्रोपस्कृतशब्दसुन्दरगिरः शिष्यप्रदेयागमा<br />विख्याताः कवयो वसन्ति विषये यस्य प्रभोर्निर्धनाः ।<br />तज्जाड्यं वसुधादिपस्य कवयस्त्वर्थं विनापीश्वराः<br />कुत्स्याः स्युः कुपरीक्षका हि मणयो यैरर्घतः पातिताः । । १.१५ । ।<br />हर्तुर्याति न गोचरं किं अपि शं पुष्णाति यत्सर्वदाऽप्य्<br />अर्थिभ्यः प्रतिपाद्यमानं अनिशं प्राप्नोति वृद्धिं परां ।<br />कल्पान्तेष्वपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यं अन्तर्धनं<br />येषां तान्प्रति मानं उज्झत नृपाः कस्तैः सह स्पर्धते । । १.१६ । ।<br />अधिगतपरमार्थान्पण्डितान्मावमंस्थास्<br />तृणं इव लघु लक्ष्मीर्नैव तान्संरुणद्धि ।<br />अभिनवमदलेखाश्यामगण्डस्थलानां<br />न भवति बिसतन्तुर्वारणं वारणानां । । १.१७ । ।<br />अम्भोजिनीवनविहारविलासं एव<br />हंसस्य हन्ति नितरां कुपितो विधाता ।<br />न त्वस्य दुग्धजलभेदविधौ प्रसिद्धां<br />वैदग्धीकीर्तिं अपहर्तुं असौ समर्थः । । १.१८ । ।<br />केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला<br />न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः ।<br />वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते<br />क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणं । । १.१९ । ।<br />विद्या नाम नरस्य रूपं अधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं<br />विद्या भोगकरी यशःसुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ।<br />विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परा देवता<br />विद्या राजसु पूज्यते न तु धनं विद्याविहीनः पशुः । । १.२० । ।<br />क्षान्तिश्चेत्कवचेन किं किं अरिभिः क्रोधोऽस्ति चेद्देहिनां<br />ज्ञातिश्चेदनलेन किं यदि सुहृद्दिव्यौषधं किं फलं ।<br />किं सर्पैर्यदि दुर्जनाः किं उ धनैर्विद्याऽनवद्या यदि<br />व्रीडा चेत्किं उ भूषणैः सुकविता यद्यस्ति राज्येन किं । । १.२१ । ।<br />दाक्षिण्यं स्वजने दया परिजने शाठ्यं सदा दुर्जने<br />प्रीतिः साधुजने नयो नृपजने विद्वज्जने चार्जवं ।<br />शौर्यं शत्रुजने क्षमा गुरुजने कान्ताजने धृष्टता<br />ये चैवं पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः । । १.२२ । ।<br />जाड्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं<br />मानोन्नतिं दिशति पापं अपाकरोति ।<br />चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं<br />सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुंसां । । १.२३ । ।<br />जयन्ति ते सुकृतिनो<br />रससिद्धाः कवीश्वराः ।<br />नास्ति येषां यशःकाये<br />जरामरणजं भयं । । १.२४ । ।<br />सूनुः सच्चरितः सती प्रियतमा स्वामी प्रसादोन्मुखः<br />स्निग्धं मित्रं अवञ्चकः परिजनो निःक्लेशलेशं मनः ।<br />आकारो रुचिरः स्थिरश्च विभवो विद्यावदातं मुखं<br />तुष्टे विष्टपकष्टहारिणि हरौ सम्प्राप्यते देहिना । । १.२५ । ।<br />प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं<br />काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषां ।<br />तृष्णास्रोतो विभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा<br />सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रेयसां एष पन्थाः । । १.२६ । ।<br />प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः<br />प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः ।<br />विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः<br />प्रारब्धं उत्तमजना न परित्यजन्ति । । १.२७ । ।<br />असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः<br />प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनं असुभङ्गेऽप्यसुकरं ।<br />विपद्युच्चैः स्थेयं पदं अनुविधेयं च महतां<br />सतां केनोद्दिष्टं विषमं असिधाराव्रतं इदं । । १.२८ । ।<br />क्षुत्क्षामोऽपि जराकृशोऽपि शिथिलप्राणोऽपि कष्टां दशाम्<br />आपन्नोऽपि विपन्नदीधितिरिति प्राणेषु नश्यत्स्वपि ।<br />मत्तेभेन्द्रविभिन्नकुम्भपिशितग्रासैकबद्धस्पृहः<br />किं जीर्णं तृणं अत्ति मानमहतां अग्रेसरः केसरी । । १.२९ । ।<br />स्वल्पस्नायुवसावशेषमलिनं निर्मांसं अप्यस्थि गोः<br />श्वा लब्ध्वा परितोषं एति न तु तत्तस्य क्षुधाशान्तये ।<br />सिंहो जम्बुकं अङ्कं आगतं अपि त्यक्त्वा निहन्ति द्विपं<br />सर्वः कृच्छ्रगतोऽपि वाञ्छन्ति जनः सत्त्वानुरूपं फलं । । १.३० । ।<br />लाङ्गूलचालनं अधश्चरणावपातं<br />भूमौ निपत्य वदनोदरदर्शनं च ।<br />श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु<br />धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङ्क्ते । । १.३१ । ।<br />परिवर्तिनि संसारे<br />मृतः को वा न जायते ।<br />स जातो येन जातेन<br />याति वंशः समुन्नतिं । । १.३२ । ।<br />कुसुमस्तवकस्येव<br />द्वयी वृत्तिर्मनस्विनः ।<br />मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य<br />शीर्यते वन एव वा । । १.३३ । ।<br />सन्त्यन्येऽपि बृहस्पतिप्रभृतयः सम्भाविताः पञ्चषास्<br />तान्प्रत्येष विशेषविक्रमरुची राहुर्न वैरायते ।<br />द्वावेव ग्रसते दिवाकरनिशाप्राणेश्वरौ भास्करौ<br />भ्रातः पर्वणि पश्य दानवपतिः शीर्षावशेषाकृतिः । । १.३४ । ।<br />वहति भुवनश्रेणिं शेषः फणाफलकस्थितां<br />कमठपतिना मध्येपृष्ठं सदा स च धार्यते ।<br />तं अपि कुरुते क्रोडाधीनं पयोधिरनादराद्<br />अहह महतां निःसीमानश्चरित्रविभूतयः । । १.३५ । ।<br />वरं पक्षच्छेदः समदमघवन्मुक्तकुलिशप्रहारैर्<br />उद्गच्छद्बहुलदहनोद्गारगुरुभिः ।<br />तुषाराद्रेः सूनोरहह पितरि क्लेशविवशे<br />न चासौ सम्पातः पयसि पयसां पत्युरुचितः । । १.३६ । ।<br />सिंहः शिशुरपि निपतति<br />मदमलिनकपोलभित्तिषु गजेषु ।<br />प्रकृतिरियं सत्त्ववतां<br />न खलु वयस्तेजसो हेतुः । । १.३७ । ।<br />जातिर्यातु रसातलं गुणगणैस्तत्राप्यधो गम्यतां<br />शीलं शैलतटात्पतत्वभिजनः सन्दह्यतां वह्निना ।<br />शौर्ये वैरिणि वज्रं आशु निपतत्वर्थोऽस्तु नः केवलं<br />येनैकेन विना गुणस्तृणलवप्रायाः समस्ता इमे । । १.३८ । ।<br />धनं अर्जय काकुत्स्थ<br />धनमूलं इदं जगत् ।<br />अन्तरं नाभिजानामि<br />निर्धनस्य मृतस्य च । । १.३९ । ।<br />तानीन्द्रियाण्यविकलानि तदेव नाम<br />सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव ।<br />अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः क्षणेन<br />सोऽप्यन्य एव भवतीति विचित्रं एतथ् । । १.४० । ।<br />यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः<br />स पण्डितः स श्रुतवान्गुणज्ञः ।<br />स एव वक्ता स च दर्शनीयः<br />सर्वे गुणाः काञ्चनं आश्रयन्ति । । १.४१ । ।<br />दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनश्यति यतिः सङ्गात्सुतो लालनात्<br />विप्रोऽनध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात् ।<br />ह्रीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रयान्<br />मैत्री चाप्रणयात्समृद्धिरनयात्त्यागप्रमादाद्धनं । । १.४२ । ।<br />दानं भोगो नाशस्तिस्रो<br />गतयो भवन्ति वित्तस्य ।<br />यो न ददाति न भुङ्क्ते<br />तस्य तृतीया गतिर्भवति । । १.४३ । ।<br />मणिः शाणोल्लीढः समरविजयी हेतिदलितो<br />मदक्षीणो नागः शरदि सरितः श्यानपुलिनाः ।<br />कलाशेषश्चन्द्रः सुरतमृदिता बालवनिता<br />तन्निम्ना शोभन्ते गलितविभवाश्चार्थिषु नराः । । १.४४ । ।<br />परिक्षीणः कश्चित्स्पृहयति यवानां प्रसृतये<br />स पश्चात्सम्पूर्णः कलयति धरित्रीं तृणसमां ।<br />अतश्चानैकान्त्याद्गुरुलघुतयाऽर्थेषु धनिनाम्<br />अवस्था वस्तूनि प्रथयति च सङ्कोचयति च । । १.४५ । ।<br />राजन्दुधुक्षसि यदि क्षितिधेनुं एतां<br />तेनाद्य वत्सं इव लोकं अमुं पुषाण<br />तस्मिंश्च सम्यगनिशं परिपोष्यमाणे<br />नानाफलैः फलति कल्पलतेव भूमिः । । १.४६ । ।<br />सत्यानृता च परुषा प्रियवादिनी च<br />हिंस्रा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या ।<br />नित्यव्यया प्रचुरनित्यधनागमा च<br />वाराङ्गनेव नृपनीतिरनेकरूपा । । १.४७ । ।<br />आज्ञा कीर्तिः पालनं ब्राह्मणानां<br />दानं भोगो मित्रसंरक्षणं च<br />येषां एते षड्गुणा न प्रवृत्ताः<br />कोऽर्थस्तेषां पार्थिवोपाश्रयेण । । १.४८ । ।<br />यद्धात्रा निजभालपट्टलिखितं स्तोकं महद्वा धनं<br />तत्प्राप्नोति मरुस्थलेऽपि नितरां मेरौ ततो नाधिकं ।<br />तद्धीरो भव वित्तवत्सु कृपणां वृत्तिं वृथा सा कृथाः<br />कूपे पश्य पयोनिधावपि घटो गृह्णाति तुल्यं जलं । । १.४९ । ।<br />त्वं एव चातकाधारोऽ<br />सीति केषां न गोचरः ।<br />किं अम्भोदवरास्माकं<br />कार्पण्योक्तं प्रतीक्षसे । । १.५० । ।<br />रे रे चातक सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूयताम्<br />अम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः ।<br />केचिद्वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद्वृथा<br />यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः । । १.५१ । ।<br />अकरुणत्वं अकारणविग्रहः<br />परधने परयोषिति च स्पृहा ।<br />सुजनबन्धुजनेष्वसहिष्णुता<br />प्रकृतिसिद्धं इदं हि दुरात्मनां । । १.५२ । ।<br />दुर्जनः परिहर्तव्यो<br />विद्ययाऽलकृतोऽपि सन् ।<br />मणिना भूषितः सर्पः<br />किं असौ न भयङ्करः । । १.५३ । ।<br />जाड्यं ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं<br />शूरे निर्घृणता मुनौ विमतिता दैन्यं प्रियालापिनि ।<br />तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे<br />तत्को नाम गुणो भवेत्स गुणिनां यो दुर्जनैर्नाङ्कितः । । १.५४ । ।<br />लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः<br />सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किं ।<br />सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः<br />सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना । । १.५५ । ।<br />शशी दिवसधूसरो गलितयौवना कामिनी<br />सरो विगतवारिजं मुखं अनक्षरं स्वाकृतेः ।<br />प्रभुर्धनपरायणः सततदुर्गतः सज्जनो<br />नृपाङ्गणगतः खलो मनसि सप्त शल्यानि मे । । १.५६ । ।<br />न कश्चिच्चण्डकोपानाम्<br />आत्मीयो नाम भूभुजां ।<br />होतारं अपि जुह्वानं<br />स्पृष्टो वहति पावकः । । १.५७ । ।<br />मौन्ॐऊकः प्रवचनपटुर्बाटुलो जल्पको वा<br />धृष्टः पार्श्वे वसति च सदा दूरतश्चाप्रगल्भः ।<br />क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः<br />सेवाधर्मः परमगहनो योगिनां अप्यगम्यः । । १.५८ । ।<br />उद्भासिताखिलखलस्य विशृङ्खलस्य<br />प्राग्जातविस्तृतनिजाधमकर्मवृत्तेः ।<br />दैवादवाप्तविभवस्य गुणद्विषोऽस्य<br />नीचस्य गोचरगतैः सुखं आप्यते । । १.५९ । ।<br />आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण<br />लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।<br />दिनस्य पूर्वार्धपरार्धभिन्ना<br />छायेव मैत्री खलसज्जनानां । । १.६० । ।<br />मृगमीनसज्जनानां तृणजलसन्तोषविहितवृत्तीनां ।<br />लुब्धकधीवरपिशुना निष्कारणवैरिणो जगति । । १.६१ । ।<br />वाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिर्गुरौ नम्रता<br />विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादाद्भयं ।<br />भक्तिः शूलिनि शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खले<br />येष्वेते निवसन्ति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः । । १.६२ । ।<br />विपदि धैर्यं अथाभ्युदये क्षमा<br />सदसि वाक्यपटुता युधि विक्रमः ।<br />यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ<br />प्रकृतिसिद्धं इदं हि महात्मनां । । १.६३ । ।<br />प्रदानं प्रच्छन्नं गृहं उपगते सम्भ्रमविधिः<br />प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृतेः ।<br />अनुत्सेको लक्ष्म्यां अनभिभवगन्धाः परकथाः<br />सतां केनोद्दिष्टं विषमं असिधाराव्रतं इदं । । १.६४ । ।<br />करे श्लाघ्यस्त्यागः शिरसि गुरुपादप्रणयिता<br />मुखे सत्या वाणी विजयि भुजयोर्वीर्यं अतुलं ।<br />हृदि स्वच्छा वृत्तिः श्रुतिं अधिगतं च श्रवणयोर्<br />विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां मण्डनं इदं । । १.६५ । ।<br />सम्पत्सु महतां चित्तं<br />भवत्युत्पलक्ॐअलं ।आपत्सु च महाशैलशिला<br />सङ्घातकर्कशं । । १.६६ । ।<br />सन्तप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते<br />मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते ।<br />स्वात्यां सागरशुक्तिमध्यपतितं तन्मौक्तिकं जायते<br />प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसर्गतो जायते । । १.६७ । ।<br />प्रीणाति यः सुचरितैः पितरं स पुत्रो<br />यद्भर्तुरेव हितं इच्छति तत्कलत्रं ।<br />तन्मित्रं आपदि सुखे च समक्रियं यद्<br />एतत्त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते । । १.६८ । ।<br />एको देवः केशवो वा शिवो वा<br />ह्येकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा ।<br />एको वासः पत्तने वा वने वा<br />ह्येका भार्या सुन्दरी वा दरी वा । । १.६९ । ।<br />नम्रत्वेनोन्नमन्तः परगुणकथनैः स्वान्गुणान्ख्यापयन्तः<br />स्वार्थान्सम्पादयन्तो विततपृथुतरारम्भयत्नाः परार्थे ।<br />क्षान्त्यैवाक्षेपरुक्षाक्षरमुखरमुखान्दुर्जनान्दूषयन्तः<br />सन्तः साश्चर्यचर्या जगति बहुमताः कस्य नाभ्यर्चनीयाः । । १.७० । ।<br />भवन्ति नम्रास्तरवः फलोद्गमैर्<br />नवाम्बुभिर्दूरावलम्बिनो घनाः ।<br />अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः<br />स्वभाव एष परोपकारिणां । । १.७१ । ।<br />श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन<br />दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन ।<br />विभाति कायः करुणपराणां<br />परोपकारैर्न तु चन्दनेन । । १.७२ । ।<br />पापान्निवारयति योजयते हिताय<br />गुह्यं निगूहति गुणान्प्रकटीकरोति ।<br />आपद्गतं च न जहाति ददाति काले<br />सन्मित्रलक्षणं इदं प्रवदन्ति सन्तः । । १.७३ । ।<br />पद्माकरं दिनकरो विकचीकरोति<br />चम्द्र्प्वोलासयति कैरवचक्रवालं ।<br />नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति<br />सन्तः स्वयं परहिते विहिताभियोगाः । । १.७४ । ।<br />एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परित्यजन्ति ये<br />सामान्यास्तु परार्थं उद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये ।<br />तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये<br />ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे । । १.७५ । ।<br />क्षीरेणात्मगतोदकाय हि गुणा दत्ता पुरा तेऽखिला<br />क्षीरोत्तापं अवेक्ष्य तेन पयसा स्वात्मा कृशानौ हुतः ।<br />गन्तुं पावकं उन्मनस्तदभवद्दृष्ट्वा तु मित्रापदं<br />युक्तं तेन जलेन शाम्यति सतां मैत्री पुनस्त्वीदृशी । । १.७६ । ।<br />इतः स्वपिति केशवः कुलं इतस्तदीयद्विषाम्<br />इतश्च शरणार्थिनां शिखरिणां गणाः शेरते ।<br />इतोऽपि बडवानलः सह समस्तसंवर्तकैऋ<br />अहो विततं ऊर्जितं भरसहं सिन्धोर्वपुः । । १.७७ । ।<br />तृष्णां छिन्धि भज क्षमां जहि मदं पापे रतिं मा कृथाः<br />सत्यं ब्रूह्यनुयाहि साधुपदवीं सेवस्व विद्वज्जनं ।<br />मान्यान्मानय विद्विषोऽप्यनुनय प्रख्यापय प्रश्रयं<br />कीर्तिं पालय दुःखिते कुरु दयां एतत्सतां चेष्टितं । । १.७८ । ।<br />मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णास्<br />त्रिभुवनं उपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।<br />परगुणपरमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यं<br />निजहृदि विकसन्तः सन्त सन्तः कियन्तः । । १.७९ । ।<br />किं तेन हेमगिरिणा रजताद्रिणा वा<br />यत्राश्रिताश्च तरवस्तरवस्त एव ।<br />मन्यामहे मलयं एव यद्आश्रयेण<br />कङ्कोलनिम्बकटुजा अपि चन्दनाः स्युः । । १.८० । ।<br />रत्नैर्महार्हैस्तुतुषुर्न देवा<br />न भेजिरे भीमविषेण भीतिं ।<br />सुधां विना न परयुर्विरामं<br />न निश्चितार्थाद्विरमन्ति धीराः । । १.८१ । ।<br />क्वचित्पृथ्वीशय्यः क्वचिदपि च परङ्कशयनः<br />क्वचिच्छाकाहारः क्वचिदपि च शाल्योदनरुचिः ।<br />क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो<br />मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखं । । १.८२ । ।<br />ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो<br />ज्ञानस्योपशमः श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः ।<br />अक्रोधस्तपसः क्षमा प्रभवितुर्धर्मस्य निर्वाजता<br />सर्वेषां अपि सर्वकारणं इदं शीलं परं भूषणं । । १.८३ । ।<br />निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु<br />लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्ठं ।<br />अद्यैव वा मरणं अस्तु युगान्तरे वा<br />न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः । । १.८४ । ।<br />भग्नाशस्य करण्डपिण्डिततनोर्म्लानेन्द्रियस्य क्षुधा<br />कृत्वाखुर्विवरं स्वयं निपतितो नक्तं मुखे भोगिनः ।<br />तृप्तस्तत्पिशितेन सत्वरं असौ तेनैव यातः यथा<br />लोकाः पश्यत दैवं एव हि नृणां वृद्धौ क्षये कारणं । । १.८५ । ।<br />आलस्यं हि मनुष्याणां<br />शरीरस्थो महान्रिपुः ।<br />नास्त्युद्यमसमो बन्धुः<br />कुर्वाणो नावसीदति । । १.८६ । ।<br />छिन्नोऽपि रोहति तर्क्षीणोऽप्युपचीयते पुनश्चन्द्रः ।<br />इति विमृशन्तः सन्तः सन्तप्यन्ते न दुःखेषु । । १.८७ । ।<br />नेता यस्य बृहस्पतिः प्रहरणं वज्रं सुराः सैनिकाः<br />स्वर्गो दुर्गं अनुग्रहः किल हरेरैरावतो वारणः ।<br />इत्यैश्वर्यबलान्वितोऽपि बलभिद्भग्नः परैः सङ्गरे<br />तद्व्यक्तं ननु दैवं एव शरणं धिग्धिग्वृथा पौरुषं । । १.८८ । ।<br />कर्मायत्तं फलं पुंसां<br />बुद्धिः कर्मानुसारिणी ।<br />तथापि सुधिया भाव्यं<br />सुविचार्यैव कुर्वता । । १.८९ । ।<br />खल्वातो दिवसेश्वरस्य किरणैः सन्ताडितो मस्तके<br />वाञ्छन्देशं अनातपं विधिवशात्तालस्य मूलं गतः ।<br />तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः<br />प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रैव यान्त्यापदः । । १.९० । ।<br />रविनिशाकरयोर्ग्रहपीडनं<br />गजभुजङ्गमयोरपि बन्धनं ।<br />मतिमतां च विलोक्य दरिद्रतां<br />विधिरहो बलवानिति मे मतिः । । १.९१ । ।<br />सृजति तावदशेषगुणकरं<br />पुरुषरत्नं अलङ्करणं भुवः ।<br />तदपि तत्क्षणभङ्गि करोति<br />चेदहह कष्टं अपण्डितता विधेः । । १.९२ । ।<br />पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम्<br />नोलूकोऽप्यवओकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणं ।<br />धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम्<br />यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः । । १.९३ । ।<br />नमस्यामो देवान्ननु हतविधेस्तेऽपि वशगा<br />विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियतकर्मैकफलदः ।<br />फलं कर्मायत्तं यदि किं अमरैः किं च विधिना<br />नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति । । १.९४ । ।<br />ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माडभाण्डोदरे<br />विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे ।<br />रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः<br />सूर्यो भ्राम्यति नित्यं एव गगने तस्मै नमः कर्मणे । । १.९५ । ।<br />नैवाकृतिः फलति नैवा कुलं न शीलं<br />विद्यापि नैव न च यत्नकृतापि सेवा ।<br />भाग्यानि पूर्वतपसा खलु सञ्चितानि<br />काले फलन्ति पुरुषस्य यथैव वृक्षाः । । १.९६ । ।<br />वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये<br />महार्णवे पर्वतमस्तके वा ।<br />सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा<br />रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि । । १.९७ । ।<br />या साधूंश्च खलान्करोति विदुषो मूर्खान्हितान्द्वेषिणः<br />प्रत्यक्षं कुरुते परीक्षं अमृतं हालाहलं तत्क्षणात् ।<br />तां आराधय सत्क्रियां भगवतीं भोक्तुं फलं वाञ्छितं<br />हे साधो व्यसनैर्गुणेषु विपुलेष्वास्थां वृथा मा कृथाः । । १.९८ । ।<br />गुणवदगुणवद्वा कुर्वता कार्यजातं<br />परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन ।<br />अतिरभसकृतानां कर्मणां आविपत्तेर्<br />भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः । । १.९९ । ।<br />स्थाल्यां वैदूर्यमय्यां पचति तिलकणांश्चन्दनैरिन्धनौघैः<br />सौवर्णैर्लाङ्गलाग्रैर्विलिखति वसुधां अर्कमूलस्य हेतोः ।<br />कृत्वा कर्पूरखण्डान्वृत्तिं इह कुरुते कोद्रवाणां समन्तात्<br />प्राप्येमां कर्म्भूमिं न चरति मनुजो यस्तोप मन्दभाग्यः । । १.१०० । ।<br />मज्जत्वम्भसि यातु मेरुशिखरं शत्रुं जयत्वाहवे<br />वाणिज्यं कृषिसेवने च सकला विद्याः कलाः शिक्षतां ।<br />आकाशं विपुलं प्रयातु खगवत्कृत्वा प्रयत्नं परं<br />नाभाव्यं भवतीह कर्मवशतो भाव्यस्य नाशः कुतः । । १.१०१ । ।<br />भीमं वनं भवति तस्य पुरं प्रधानं<br />सर्वो जनः स्वजनतां उपयाति तस्य ।<br />कृत्स्ना च भूर्भवति सन्निधिरत्नपूर्णा<br />यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं नरस्य । । १.१०२ । ।<br />को लाभो गुणिसङ्गमः किं असुखं प्राज्ञेतरैः सङ्गतिः<br />का हानिः समयच्युतिर्निपुणता का धर्मतत्त्वे रतिः ।<br />कः शूरो विजितेन्द्रियः प्रियतमा काऽनुव्रता किं धनं<br />विद्या किं सुखं अप्रवासगमनं राज्यं किं आज्ञाफलं । । १.१०३ । ।<br />अप्रियवचनदरिद्रैः प्रियवचनधनाढ्यैः स्वदारपरितुष्टैः ।<br />परपरिवादनिवृत्तैः क्वचित्क्वचिन्मण्डिता वसुधा । । १.१०४ । ।<br />कदर्थितस्यापि हि धैर्यवृत्तेर्<br />न शक्यते धैर्यगुणः प्रमार्ष्टुं ।<br />अध्ॐउखस्यापि कृतस्य वह्नेर्<br />नाधः शिखा याति कदाचिदेव । । १.१०५ । ।<br />कान्ताकटाक्षविशिखा न लुनन्ति यस्य<br />चित्तं न निर्दहति किपकृशानुतापः ।<br />कर्षन्ति भूरिविषयाश्च न लोभपाशैर्<br />लोकत्रयं जयति कृत्स्नं इदं स धीरः । । १.१०६ । ।<br />एकेनापि हि शूरेण<br />पादाक्रान्तं महीतलं ।<br />क्रियते भास्करेणैव<br />स्फारस्फुरिततेजसा । । १.१०७ । ।<br />वह्निस्तस्य जलायते जलनिधिः कुल्यायते तत्क्षणान्<br />मेरुः स्वल्पशिलायते मृगपतिः सद्यः कुरङ्गायते ।<br />व्यालो माल्यगुणायते विषरसः पीयूषवर्षायते<br />यस्याङ्गेऽखिललोकवल्लभतमं शीलं समुन्मीलति । । १.१०८ । ।<br />लज्जागुणौघजननीं जननीं इव स्वाम्<br />अत्यन्तशुद्धहृदयां अनुवर्तमानां ।<br />तेजस्विनः सुखं असूनपि सन्त्यजनति<br />सत्यव्रतव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञां । । १.१०९ । ।<br />Rajhttp://www.blogger.com/profile/17416312611933993115noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-2254608446026408546.post-58299889572192982432011-08-04T12:13:00.000-07:002011-11-08T09:19:26.779-08:00मुंशी प्रेमचन्द- रोचक कहानियाँपूस की रात<br />हल्कू ने आकर स्त्री से कहा-सहना आया है । लाओं, जो रुपये रखे हैं, उसे दे दूँ, किसी तरह गला तो छूटे ।<br />मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिरकर बोली-तीन ही रुपये हैं, दे दोगे तो कम्मल कहॉँ से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी ? उससे कह दो, फसल पर दे देंगें। अभी नहीं । <br />हल्कू एक क्षण अनिशिचत दशा में खड़ा रहा । पूस सिर पर आ गया, कम्बल के बिना हार मे रात को वह किसी तरह सो नहीं सकता। मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ जमावेगा, गालियॉं देगा। बला से जाड़ों मे मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी । यह सोचता हुआ वह अपना भारी-भरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठ सिध्द करता था ) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला-दे दे, गला तो छूटे ।कम्मल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचँगा । <br />मुन्नी उसके पास से दूर हट गई और ऑंखें तरेरती हुई बोली-कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूँ तो कौन-सा उपाय करोगे ? कोई खैरात दे देगा कम्मल ? न जान कितनी बाकी है, जों किसी तरह चुकने ही नहीं आती । मैं कहती हूं, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते ? मर-मर काम करों, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुटटी हुई । बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ हैं । पेट के लिए मजूरी करों । ऐसी खेती से बाज आयें । मैं रुपयें न दूँगी, न दूँगी । <br />हल्कू उदास होकर बोला-तो क्या गाली खाऊँ ?<br />मुन्नी ने तड़पकर कहा-गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है ?<br />मगर यह कहने के साथ् ही उसकी तनी हुई भौहें ढ़ीली पड़ गई । हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भॉँति उसे घूर रहा था । <br />उसने जाकर आले पर से रुपये निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए। फिर बोली-तुम छोड़ दो अबकी से खेती । मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी । किसी की धौंस तो न रहेगी । अच्छी खेती है ! मजूरी करके लाओं, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर धौंस ।<br />हल्कू न रुपयें लिये और इस तरह बाहर चला, मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हों । उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-काटकर तीन रुपये कम्बल के लिए जमा किए थें । वह आज निकले जा रहे थे । एक-एक पग के साथ उसका मस्तक पानी दीनता के भार से दबा जा रहा था ।<br /><br />2<br /><br />पूस की अँधेरी रात ! आकाश पर तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पतों की एक छतरी के नीचे बॉस के खटाले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा कॉप रहा था । खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट मे मुँह डाले सर्दी से कूँ-कूँ कर रहा था । दो मे से एक को भी नींद नहीं आ रही थी । <br />हल्कू ने घुटनियों कों गरदन में चिपकाते हुए कहा-क्यों जबरा, जाड़ा लगता है ? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रह, तो यहॉँ क्या लेने आये थें ? अब खाओं ठंड, मै क्या करूँ ? जानते थें, मै। यहॉँ हलुआ-पूरी खाने आ रहा हूँ, दोड़े-दौड़े आगे-आगे चले आये । अब रोओ नानी के नाम को । <br />जबरा ने पड़े-पड़े दुम हिलायी और अपनी कूँ-कूँ को दीर्घ बनाता हुआ कहा-कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठंडे हो जाओगे । यीह रांड पछुआ न जाने कहाँ से बरफ लिए आ रही हैं । उठूँ, फिर एक चिलम भरूँ । किसी तरह रात तो कटे ! आठ चिलम तो पी चुका । यह खेती का मजा हैं ! और एक भगवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा आए तो गरमी से घबड़ाकर भागे। मोटे-मोटे गददे, लिहाफ, कम्बल । मजाल है, जाड़े का गुजर हो जाए । जकदीर की खूबी ! मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें !<br />हल्कू उठा, गड्ढ़े मे से जरा-सी आग निकालकर चिलम भरी । जबरा भी उठ बैठा । <br />हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा-पिएगा चिलम, जाड़ा तो क्या जाता हैं, हॉँ जरा, मन बदल जाता है।<br />जबरा ने उनके मुँह की ओर प्रेम से छलकता हुई ऑंखों से देखा ।<br />हल्कू-आज और जाड़ा खा ले । कल से मैं यहाँ पुआल बिछा दूँगा । उसी में घुसकर बैठना, तब जाड़ा न लगेगा । <br />जबरा ने अपने पंजो उसकी घुटनियों पर रख दिए और उसके मुँह के पास अपना मुँह ले गया । हल्कू को उसकी गर्म सॉस लगी ।<br />चिलम पीकर हल्कू फिर लेटा और निश्चय करके लेटा कि चाहे कुछ हो अबकी सो जाऊँगा, पर एक ही क्षण में उसके हृदय में कम्पन होने लगा । कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट, पर जाड़ा किसी पिशाच की भॉँति उसकी छाती को दबाए हुए था ।<br />जब किसी तर न रहा गया, उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसक सिर को थपथपाकर उसे अपनी गोद में सुला लिया । कुत्ते की देह से जाने कैसी दुर्गंध आ रही थी, पर वह उसे अपनी गोद मे चिपटाए हुए ऐसे सुख का अनुभव कर रहा था, जो इधर महीनों से उसे न मिला था । जबरा शायद यह समझ रहा था कि स्वर्ग यहीं है, और हल्कू की पवित्र आत्मा में तो उस कुत्ते के प्रति घृणा की गंध तक न ,थी । अपने किसी अभिन्न मित्र या भाई को भी वह इतनी ही तत्परता से गले लगाता । वह अपनी दीनता से आहत न था, जिसने आज उसे इस दशा कोपहुंचा दिया । नहीं, इस अनोखी मैत्री ने जैसे उसकी आत्मा के सब द्वार खोल दिए थे और उनका एक-एक अणु प्रकाश से चमक रहा था । <br />सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई । इस विशेष आत्मीयता ने उसमे एक नई स्फूर्ति पैदा कर रही थी, जो हवा के ठंडें झोकों को तुच्छ समझती थी । वह झपटकर उठा और छपरी से बाहर आकर भूँकने लगा । हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया, पर वह उसके पास न आया । हार मे चारों तरफ दौड़-दौड़कर भूँकता रहा। एक क्षण के लिए आ भी जाता, तो तुरंत ही फिर दौड़ता । कर्त्तव्य उसके हृदय में अरमान की भाँति ही उछल रहा था ।<br /><br />3<br /><br />एक घंटा और गुजर गया। रात ने शीत को हवा से धधकाना शुरु किया।<br />हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठंड कम न हुई, ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया हैं, धमनियों मे रक्त की जगह हिम बह रहीं है। उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी रात बाकी है ! सप्तर्षि अभी आकाश में आधे भी नहीं चढ़े । ऊपर आ जाऍंगे तब कहीं सबेरा होगा । अभी पहर से ऊपर रात हैं ।<br />हल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर आमों का एक बाग था । पतझड़ शुरु हो गई थी । बाग में पत्तियो को ढेर लगा हुआ था । हल्कू ने सोच, चलकर पत्तियों बटोरूँ और उन्हें जलाकर खूब तापूँ । रात को कोई मुझें पत्तियों बटारते देख तो समझे, कोई भूत है । कौन जाने, कोई जानवर ही छिपा बैठा हो, मगर अब तो बैठे नहीं रह जाता ।<br />उसने पास के अरहर के खेत मे जाकर कई पौधें उखाड़ लिए और उनका एक झाड़ू बनाकर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिये बगीचे की तरफ चला । जबरा ने उसे आते देखा, पास आया और दुम हिलाने लगा ।<br />हल्कू ने कहा-अब तो नहीं रहा जाता जबरू । चलो बगीचे में पत्तियों बटोरकर तापें । टॉटे हो जाऍंगे, तो फिर आकर सोऍंगें । अभी तो बहुत रात है। <br />जबरा ने कूँ-कूँ करें सहमति प्रकट की और आगे बगीचे की ओर चला।<br />बगीचे में खूब अँधेरा छाया हुआ था और अंधकार में निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था । वृक्षों से ओस की बूँदे टप-टप नीचे टपक रही थीं । <br />एकाएक एक झोंका मेहँदी के फूलों की खूशबू लिए हुए आया । <br />हल्कू ने कहा-कैसी अच्छी महक आई जबरू ! तुम्हारी नाक में भी तो सुगंध आ रही हैं ?<br />जबरा को कहीं जमीन पर एक हडडी पड़ी मिल गई थी । उसे चिंचोड़ रहा था ।<br />हल्कू ने आग जमीन पर रख दी और पत्तियों बठारने लगा । जरा देर में पत्तियों का ढेर लग गया था । हाथ ठिठुरे जाते थें । नगें पांव गले जाते थें । और वह पत्तियों का पहाड़ खड़ा कर रहा था । इसी अलाव में वह ठंड को जलाकर भस्म कर देगा । <br />थोड़ी देर में अलावा जल उठा । उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी । उस अस्थिर प्रकाश में बगीचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थें, मानो उस अथाह अंधकार को अपने सिरों पर सँभाले हुए हों । अन्धकार के उस अनंत सागर मे यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था ।<br />हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था । एक क्षण में उसने दोहर उताकर बगल में दबा ली, दोनों पॉवं फैला दिए, मानों ठंड को ललकार रहा हो, तेरे जी में आए सो कर । ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था ।<br />उसने जबरा से कहा-क्यों जब्बर, अब ठंड नहीं लग रही है ?<br />जब्बर ने कूँ-कूँ करके मानो कहा-अब क्या ठंड लगती ही रहेगी ?<br />‘पहले से यह उपाय न सूझा, नहीं इतनी ठंड क्यों खातें ।’<br />जब्बर ने पूँछ हिलायी ।<br />अच्छा आओ, इस अलाव को कूदकर पार करें । देखें, कौन निकल जाता है। अगर जल गए बचा, तो मैं दवा न करूँगा ।<br />जब्बर ने उस अग्नि-राशि की ओर कातर नेत्रों से देखा !<br />मुन्नी से कल न कह देना, नहीं लड़ाई करेगी ।<br />यह कहता हुआ वह उछला और उस अलाव के ऊपर से साफ निकल गया । पैरों में जरा लपट लगी, पर वह कोई बात न थी । जबरा आग के गिर्द घूमकर उसके पास आ खड़ा हुआ । <br />हल्कू ने कहा-चलो-चलों इसकी सही नहीं ! ऊपर से कूदकर आओ । वह फिर कूदा और अलाव के इस पार आ गया । <br /><br />4<br /><br />पत्तियॉँ जल चुकी थीं । बगीचे में फिर अँधेरा छा गया था । राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाकी थी, जो हवा का झोंका आ जाने पर जरा जाग उठती थी, पर एक क्षण में फिर ऑंखे बन्द कर लेती थी !<br />हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा हुआ एक गीत गुनगुनाने लगा । उसके बदन में गर्मी आ गई थी, पर ज्यों-ज्यों शीत बढ़ती जाती थी, उसे आलस्य दबाए लेता था । <br />जबरा जोर से भूँककर खेत की ओर भागा । हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुण्ड खेत में आया है। शायद नीलगायों का झुण्ड था । उनके कूदने-दौड़ने की आवाजें साफ कान में आ रही थी । फिर ऐसा मालूम हुआ कि खेत में चर रहीं है। उनके चबाने की आवाज चर-चर सुनाई देने लगी।<br />उसने दिल में कहा-नहीं, जबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता। नोच ही डाले। मुझे भ्रम हो रहा है। कहॉँ! अब तो कुछ नहीं सुनाई देता। मुझे भी कैसा धोखा हुआ!<br />उसने जोर से आवाज लगायी-जबरा, जबरा।<br />जबरा भूँकता रहा। उसके पास न आया।<br />फिर खेत के चरे जाने की आहट मिली। अब वह अपने को धोखा न दे सका। उसे अपनी जगह से हिलना जहर लग रहा था। कैसा दँदाया हुआ बैठा था। इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना असह्य जान पड़ा। वह अपनी जगह से न हिला।<br />उसने जोर से आवाज लगायी-हिलो! हिलो! हिलो!<br />जबरा फिर भूँक उठा । जानवर खेत चर रहे थें । फसल तैयार हैं । कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किए डालते है।<br />हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला, पर एकाएक हवा कस ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा । <br />जबरा अपना गला फाड़ डालता था, नील गाये खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था । अकर्मण्यता ने रस्सियों की भॉति उसे चारों तरफ से जकड़ रखा था। <br />उसी राख के पस गर्म जमीन परद वही चादर ओढ़ कर सो गया । <br />सबेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ धूप फैली गई थी और मुन्नी की रही थी-क्या आज सोते ही रहोगें ? तुम यहॉ आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया । <br />हल्कू न उठकर कहा-क्या तू खेत से होकर आ रही है ?<br />मुन्नी बोली-हॉँ, सारे खेत कासत्यनाश हो गया । भला, ऐसा भी कोई सोता है। तुम्हारे यहॉ मँड़ैया डालने से क्या हुआ ?<br />हल्कू ने बहाना किया-मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी हैं। पेट में ऐसा दरद हुआ, ऐसा दरद हुआ कि मै नहीं जानता हूँ !<br />दोनों फिर खेत के डॉँड पर आयें । देखा सारा खेत रौदां पड़ा हुआ है और जबरा मॅड़ैया के नीचे चित लेटा है, मानो प्राण ही न हों ।<br />दोनों खेत की दशा देख रहे थें । मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी, पर हल्कू प्रसन्न था ।<br />मुन्नी ने चिंतित होकर कहा-अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी।<br />हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा-रात को ठंड में यहॉ सोना तो न पड़ेगा।<br />Rajhttp://www.blogger.com/profile/17416312611933993115noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2254608446026408546.post-31397007853813288392011-08-04T12:01:00.000-07:002011-08-04T12:21:11.594-07:00मुंशी प्रेमचन्द- रोचक कहानियाँ-०१ प्रेमचन्द- ०१<br />घासवाली<br />मुलिया हरी-हरी घास का गट्ठा लेकर आयी, तो उसका गेहुआँ रंग कुछ तमतमाया हुआ था और बड़ी-बड़ी मद-भरी आँखो में शंका समाई हुई थी। महावीर ने उसका तमतमाया हुआ चेहरा देखकर पूछा - क्या है मुलिया, आज कैसा जी है?<br /><br />मुलिया ने कुछ जवाब न दिया उसकी आँखें डबडबा गयीं! महावीर ने समीप आकर पूछा - क्या हुआ है, बताती क्यों नहीं ? किसी ने कुछ कहा है? अम्माँ ने डाँटा है? क्यों इतनी उदास है ?<br /><br />मुलिया ने सिसककर कहा - क़ुछ नहीं, हुआ क्या है, अच्छी तो हूँ?<br /><br />महावीर ने मुलिया को सिर से पाँव तक देखकर कहा - चुपचाप रोयेगी, बतायेगी नहीं ?<br /><br />मुलिया ने बात टालकर कहा - कोई बात भी हो, क्या बताऊँ?<br /><br />मुलिया इस ऊसर में गुलाब का फूल थी। गेहुआँ रंग था, हिरन की-सी आँखें, नीचे खिंचा हुआ चिबुक, कपोलों पर हलकी लालिमा, बड़ी-बड़ी नुकीली पलकें, आँखो में एक विचित्र आर्द्रता, जिसमें एक स्पष्ट वेदना, एक मूक व्यथा झलकती रहती थी। मालूम नहीं, चमारों के इस घर में वह अप्सरा कहाँ से आ गयी थी। क्या उसका कोमल फूल-सा गात इस योग्य था कि सर पर घास की टोकरी रखकर बेचने जाती? उस गाँव में भी ऐसे लोग मौजूद थे, जो उसके तलवे के नीचे आँखें बिछाते थे, उसकी एक चितवन के लिए तरसते थे, जिनसे अगर वह एक शब्द भी बोलती, तो निहाल हो जाते; लेकिन उसे आये साल-भर से अधिक हो गया, किसी ने उसे युवकों की तरफ ताकते या बातें करते नहीं देखा। वह घास लिये निकलती, तो ऐसा मालूम होता, मानो उषा का प्रकाश, सुनहरे आवरण में रंजित, अपनी छटा बिखेरता जाता हो। कोई गजलें गाता, कोई छाती पर हाथ रखता; पर मुलिया नीची आँख किये अपनी राह चली जाती। लोग हैरान होकर कहते इतना अभिमान !<br />महावीर में ऐसे क्या सुरखाब के पर लगे हैं, ऐसा अच्छा जवान भी तो नहीं, न जाने यह कैसे उसके साथ रहती है !<br /><br />मगर आज ऐसी बात हो गयी, जो इस जाति की और युवतियों के लिए चाहे गुप्त संदेश होती, मुलिया के लिए ह्रदय का शूल थी। प्रभात का समय था, पवन आम की बौर की सुगन्धि से मतवाला हो रहा था, आकाश पृथ्वी पर सोने की वर्षा कर रहा था। मुलिया सिर पर झौआ रक्खे घास छीलने चली, तो उसका गेहुआँ रंग प्रभात की सुनहरी किरणों से कुन्दन की तरह दमक उठा। एकाएक युवक चैनसिंह सामने से आता हुआ दिखाई दिया। मुलिया ने चाहा कि कतराकर निकल जाय; मगर चैनसिंह ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला - मुलिया, तुझे क्या मुझ पर जरा भी दया नहीं आती ?<br /><br />मुलिया का वह फूल-सा खिला हुआ चेहरा ज्वाला की तरह दहक उठा। वह जरा भी नहीं डरी, जरा भी न झिझकी, झौआ जमीन पर गिरा दिया, और बोली, मुझे छोड़ दो, नहीं मैं चिल्लाती हूँ।<br /><br />चैनसिंह को आज जीवन में एक नया अनुभव हुआ। नीची जातों में रूप-माधुर्य का इसके सिवा और काम ही क्या है कि वह ऊँची जातवालों का खिलौना बने। ऐसे कितने ही मार्क उसने जीते थे; पर आज मुलिया के चेहरे का वह रंग, उसका वह क्रोध, वह अभिमान देखकर उसके छक्के छूट गये। उसने लज्जित होकर उसका हाथ छोड़ दिया। मुलिया वेग से आगे बढ़ गयी। संघर्ष की गरमी में चोट की व्यथा नहीं होती, पीछे से टीस होने लगती है। मुलिया जब कुछ दूर निकल गई, तो क्रोध और भय तथा अपनी बेकसी को अनुभव करके उसकी आँखो में आँसू भर आये। उसने कुछ देर जब्त किया, फिर सिसक-सिसक कर रोने लगी। अगर वह इतनी गरीब न होती, तो किसी की मजाल थी कि इस तरह उसका अपमान करता ! वह रोती जाती थी और घास छीलती जाती थी। महावीर का क्रोध वह जानती थी। अगर उससे कह दे, तो वह इस ठाकुर के खून का प्यासा हो जायगा। फिर न जाने क्या हो ! इस खयाल से उसके रोएँ खड़े हो गए। इसीलिए उसने महावीर के प्रश्नों का कोई उत्तर न दिया।<br /><br />दूसरे दिन मुलिया घास के लिए न गई। सास ने पूछा - तू क्यों नहीं जाती? और सब तो चली गयीं ?<br /><br />मुलिया ने सिर झुकाकर कहा - मैं अकेली न जाऊँगी।<br /><br />सास ने बिगड़कर कहा - अकेले क्या तुझे बाघ उठा ले जायगा?<br /><br />मुलिया ने और भी सिर झुका लिया और दबी हुई आवाज से बोली, सब मुझे छेड़ते हैं।<br /><br />सास ने डाँटा न तू औरों के साथ जायगी, न अकेली जायगी, तो फिर जायगी कैसे ! वह साफ-साफ क्यों नहीं कहती कि मैं न जाऊँगी। तो यहाँ मेरे घर में रानी बन के निबाह न होगा। किसी को चाम नहीं प्यारा होता, काम प्यारा होता है। तू बड़ी सुन्दर है, तो तेरी सुन्दरता लेकर चाटूँ ? उठा झाबा और घास ला !<br /><br />द्वार पर नीम के दरख्त के साये में महावीर खड़ा घोड़े को मल रहा था। उसने मुलिया को रोनी सूरत बनाये जाते देखा; पर कुछ बोल न सका। उसका बस चलता तो मुलिया को कलेजे में बिठा लेता, आँखो में छिपा लेता; लेकिन घोड़े का पेट भरना तो जरूरी था। घास मोल लेकर खिलाये, तो बारह आने रोज से कम न पड़े। ऐसी मजदूरी ही कौन होती है। मुश्किल से डेढ़-दो रुपये मिलते हैं, वह भी कभी मिले, कभी न मिले। जब से यह सत्यानाशी लारियाँ चलने लगी हैं; एक्केवालों की बधिया बैठ गई है। कोई सेंत भी नहीं पूछता। महाजन से डेढ़-सौ रुपये उधार लेकर एक्का और घोड़ा खरीदा था; मगर लारियों के आगे एक्के को कौन पूछता है। महाजन का सूद भी तो न पहुँच सकता था, मूल का कहना ही क्या ! ऊपरी मन से बोला - न मन हो, तो रहने दो, देखी जायगी।<br /><br />इस दिलजोई से मुलिया निहाल हो गई। बोली, घोड़ा खायेगा क्या?<br /><br />आज उसने कल का रास्ता छोड़ दिया और खेतों की मेड़ों से होती हुई चली। बार-बार सतर्क आँखो से इधर-उधार ताकती जाती थी। दोनों तरफ ऊख के खेत खड़े थे। जरा भी खड़खड़ाहट होती, उसका जी सन्न हो जाता क़हीं कोई ऊख में छिपा न बैठा हो। मगर कोई नई बात न हुई। <br /><br />ऊख के खेत निकल गये, आमों का बाग निकल गया; सिंचे हुए खेत नजर आने लगे। दूर के कुएँ पर पुर चल रहा था। खेतों की मेड़ों पर हरी-हरी घास जमी हुई थी। मुलिया का जी ललचाया। यहाँ आधा घण्टे में जितनी घास छिल सकती है, सूखे मैदान में दोपहर तक न छिल सकेगी ! यहाँ देखता ही कौन है। कोई चिल्लायेगा, तो चली जाऊँगी। वह बैठकर घास छीलने लगी<br />और एक घण्टे में उसका झाबा आधे से ज्यादा भर गया। वह अपने काम में इतनी तन्मय थी कि उसे चैनसिंह के आने की खबर ही न हुई। एकाएक उसने आहट पाकर सिर उठाया, तो चैनसिंह को खड़ा देखा। <br /><br />मुलिया की छाती धक् से हो गयी। जी में आया भाग जाय, झाबा उलट दे और खाली झाबा लेकर चली जाय; पर चैनसिंह ने कई गज के फासले से ही रुककर कहा, ड़र मत, डर मत, भगवान जानता है ! मैं तुझसे कुछ न बोलूँगा। जितनी घास चाहे छील ले, मेरा ही खेत है। <br /><br />मुलिया के हाथ सुन्न हो गये, खुरपी हाथ में जम-सी गयी, घास नजर ही न आती थी। जी चाहता था; जमीन फट जाय और मैं समा जाऊँ। जमीन आँखो के सामने तैरने लगी।<br /><br />चैनसिंह ने आश्वासन दिया - छीलती क्यों नहीं ? मैं तुमसे कुछ कहता थोड़े ही हूँ। यहीं रोज चली आया कर, मैं छील दिया करूँगा।<br /><br />मुलिया चित्रलिखित-सी बैठी रही।<br /><br />चैनसिंह ने एक कदम आगे बढ़ाया और बोला तू मुझसे इतना डरती क्यों है ! क्या तू समझती है, मैं आज भी तुझे सताने आया हूँ ? ईश्वर जानता है, कल भी तुझे सताने के लिए मैंने तेरा हाथ नहीं पकड़ा था। तुझे देखकर आप-ही-आप हाथ बढ़ गये। मुझे कुछ सुध ही न रही। तू चली गयी, तो मैं वहीं बैठकर घण्टों रोता रहा। जी में आता था, हाथ काट डालूँ। कभी जी चाहता था, जहर खा लूँ। तभी से तुझे ढूँढ़ रहा हूँ आज तू इस रास्ते से चली आयी। मैं सारा हार छानता हुआ यहाँ आया हूँ। अब जो सजा तेरे जी में आवे, दे दे। अगर तू मेरा सिर भी काट ले, तो गर्दन न हिलाऊँगा। मैं शोहदा था, लुच्चा था, लेकिन जब से तुझे देखा है, मेरे मन से सारी खोट मिट गयी है। अब तो यही जी में आता है कि तेरा कुत्ता होता और तेरे पीछे-पीछे चलता, तेरा घोड़ा होता, तब तो तू अपने हाथों से मेरे सामने घास डालती। किसी तरह यह चोला तेरे काम आवे, मेरे मन की यह सबसे बड़ी<br />लालसा है। मेरी जवानी काम न आवे, अगर मैं किसी खोट से ये बातें कर रहा हूँ। बड़ा भागवान था महावीर, जो ऐसी देवी उसे मिली। <br /><br />मुलिया चुपचाप सुनती रही, फिर नीचा सिर करके भोलेपन से बोली - तो तुम मुझे क्या करने को कहते हो?<br /><br />चैनसिंह और समीप आकर बोला बस, तेरी दया चाहता हूँ।<br /><br />मुलिया ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा। उसकी लज्जा न जाने कहाँ गायब हो गयी। चुभते हुए शब्दों में बोली - तुमसे एक बात कहूँ, बुरा तो न मानोगे? तुम्हारा ब्याह हो गया है या नहीं?<br /><br />चैनसिंह ने दबी जबान से कहा - ब्याह तो हो गया, लेकिन ब्याह क्या है, खिलवाड़ है।<br /><br />मुलिया के होठों पर अवहेलना की मुसकराहट झलक पड़ी, बोली - फिर भी अगर मेरा आदमी तुम्हारी औरत से इसी तरह बातें करता, तो तुम्हें कैसा लगता ? तुम उसकी गर्दन काटने पर तैयार हो जाते कि नहीं? बोलो ! क्या समझते हो कि महावीर चमार है तो उसकी देह में लहू नहीं है, उसे लज्जा नहीं है, अपने मर्यादा का विचार नहीं है? मेरा रूप-रंग तुम्हें भाता है। क्या<br />घाट के किनारे मुझसे कहीं सुन्दर औरतें नहीं घूमा करतीं? मैं उनके तलवों की बराबरी भी नहीं कर सकती। तुम उसमें से किसी से क्यों नहीं दया माँगते ! क्या उनके पास दया नहीं है? मगर वहाँ तुम न जाओगे; क्योंकि वहाँ जाते तुम्हारी छाती दहलती है। मुझसे दया माँगते हो, इसलिए न कि मैं चमारिन हूँ, नीच जाति हूँ और नीच जाति की औरत जरा-सी घुड़की-धमकी वा जरा-सी लालच से तुम्हारी मुट्ठी में आ जायगी। कितना सस्ता सौदा है। ठाकुर हो न, ऐसा सस्ता सौदा क्यों छोड़ने लगे ?<br /><br />चैनसिंह लज्जित होकर बोला - मूला, यह बात नहीं। मैं सच कहता हूँ, इसमें ऊँच-नीच की बात नहीं है। सब आदमी बराबर हैं। मैं तो तेरे चरणों पर सिर रखने को तैयार हूँ।<br /><br />मुलिया - इसीलिए न कि जानते हो, मैं कुछ कर नहीं सकती। जाकर किसी खतरानी के चरणों पर सिर रक्खो, तो मालूम हो कि चरणों पर सिर रखने का क्या फल मिलता है। फिर यह सिर तुम्हारी गर्दन पर न रहेगा।<br /><br />चैनसिंह मारे शर्म के जमीन में गड़ा जाता था। उसका मुँह ऐसा सूख गया था, मानो महीनों की बीमारी से उठा हो। मुँह से बात न निकलती थी। मुलिया इतनी वाक्-पटु है, इसका उसे गुमान भी न था।<br /><br />मुलिया फिर बोली - मैं भी रोज बाजार जाती हूँ। बड़े-बड़े घरों का हाल जानती हूँ। मुझे किसी बड़े घर का नाम बता दो, जिसमें कोई साईस, कोई कोचवान, कोई कहार, कोई पण्डा, कोई महाराज न घुसा बैठा हो ? यह सब बड़े घरों की लीला है। और वह औरतें जो कुछ करती हैं, ठीक करती हैं ! उनके घरवाले भी तो चमारिनों और कहारिनों पर जान देते फिरते हैं। लेना-देना बराबर हो जाता है। बेचारे गरीब आदमियों के लिए यह बातें कहाँ? मेरे आदमी के लिए संसार में जो कुछ हूँ, मैं हूँ। वह किसी दूसरी<br />मिहरिया की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता। संयोग की बात है कि मैं तनिक सुन्दर हूँ, लेकिन मैं काली-कलूटी भी होती, तब भी वह मुझे इसी तरह रखता। इसका मुझे विश्वास है। मैं चमारिन होकर भी इतनी नीच नहीं हूँ कि विश्वास का बदला खोट से दूँ। हाँ, वह अपने मन की करने लगे, मेरी छाती पर मूँग दलने लगे, तो मैं भी उसकी छाती पर मूँग दलूँगी। तुम मेरे<br />रूप ही के दीवाने हो न ! आज मुझे माता निकल आयें, कानी हो जाऊँ, तो मेरी ओर ताकोगे भी नहीं। बोलो, झूठ कहती हूँ ?<br /><br />चैनसिंह इनकार न कर सका।<br /><br />मुलिया ने उसी गर्व से भरे हुए स्वर में कहा - लेकिन मेरी एक नहीं, दोनों आँखें फूट जायें, तब भी वह मुझे इसी तरह रक्खेगा। मुझे उठावेगा, बैठावेगा, खिलावेगा। तुम चाहते हो, मैं ऐसे आदमी के साथ कपट करूँ? जाओ, अब मुझे कभी न छेड़ना, नहीं अच्छा न होगा। <br /><br />जवानी जोश है, बल है, दया है, साहस है, आत्म-विश्वास है, गौरव है और सब कुछ जो जीवन को पवित्र, उज्ज्वल और पूर्ण बना देता है। जवानी का नशा घमंड है, निर्दयता है, स्वार्थ है, शेखी है, विषय-वासना है, कटुता है और वह सब कुछ जो जीवन को पशुता, विकार और पतन की ओर ले जाता है। चैनसिंह पर जवानी का नशा था। मुलिया के शीतल छींटों ने नशा उतार दिया। जैसे उबलती हुई चाशनी में पानी के छींटे पड़ जाने से फेन मिट जाता है, मैल निकल जाता है और निर्मल, शुद्ध रस निकल आता है। जवानी का नशा जाता रहा, केवल जवानी रह गयी। कामिनी के शब्द जितनी आसानी से दीन और ईमान को गारत कर सकते हैं, उतनी ही आसानी से उनका उद्धार भी कर सकते हैं।<br /><br />चैनसिंह उस दिन से दूसरा ही आदमी हो गया। गुस्सा उसकी नाक पर रहता था, बात-बात पर मजदूरों को गालियाँ देना, डाँ टना और पीटना उसकी आदत थी। असामी उससे थर-थर काँपते थे। मजदूर उसे आते देखकर अपने काम में चुस्त हो जाते थे; पर ज्यों ही उसने इधर पीठ फेरी और उन्होंने चिलम पीना शुरू किया। सब दिल में उससे जलते थे, उसे गालियाँ देते थे। मगर उस दिन से चैनसिंह इतना दयालु, इतना गंभीर, इतना सहनशील हो गया कि लोगों को आश्चर्य होता था।<br /><br />कई दिन गुजर गये थे। एक दिन सन्ध्या समय चैनसिंह खेत देखने गया। पुर चल रहा था। उसने देखा कि एक जगह नाली टूट गयी है, और सारा पानी बहा चला जाता है। क्यारियों में पानी बिलकुल नहीं पहुँचता, मगर क्यारी बनाने वाली बुढ़िया चुपचाप बैठी है। उसे इसकी जरा भी फिक्र नहीं है कि पानी क्यों नहीं आता। पहले यह दशा देखकर चैनसिंह आपे से बाहर<br />हो जाता। उस औरत की उस दिन मजूरी काट लेता और पुर चलानेवालों को घुड़कियाँ जमाता, पर आज उसे क्रोध नहीं आया। उसने मिट्टी लेकर नाली बाँधा दी और खेत में जाकर बुढ़िया से बोला - तू यहाँ बैठी है और पानी सब बहा जा रहा है।<br /><br />बुढ़िया घबड़ाकर बोली - अभी खुल गयी होगी। राजा ! मैं अभी जाकर बन्द किये देती हूँ।<br /><br />यह कहती हुई वह थरथर काँपने लगी। चैनसिंह ने उसकी दिलजोई करते हुए कहा - भाग मत, भाग मत। मैंने नाली बन्द कर दी। बुढ़ऊ कई दिन से नहीं दिखाई दिये, कहीं काम पर जाते हैं कि नहीं ?<br /><br />बुढ़िया गद्गद होकर बोली, आजकल तो खाली ही बैठे हैं भैया, कहीं काम नहीं लगता।<br /><br />चैनसिंह ने नम्र भाव से कहा, तो हमारे यहाँ लगा दे। थोड़ा-सा सन रखा है, उसे कात दें।<br /><br />यह कहता हुआ वह कुएँ की ओर चला गया। यहाँ चार पुर चल रहे थे; पर इस वक्त दो हँकवे बेर खाने गये थे। चैनसिंह को देखते ही मजूरों के होश उड़ गये। ठाकुर ने पूछा, दो आदमी कहाँ गये, तो क्या जवाब देंगे? सब-के-सब डाँटे जायेंगे। बेचारे दिल में सहमे जा रहे थे। चैनसिंह ने पूछा - वह दोनों कहाँ चले गये?<br /><br />किसी के मुँह से आवाज न निकली। सहसा सामने से दोनों मजूर धोती के एक कोने में बेर भरे आते दिखाई दिए। खुश-खुश बात करते चले आ रहे थे। चैनसिंह पर निगाह पड़ी, तो दोनों के प्राण सूख गए। पाँव मन-मन भर के हो गए। अब न आते बनता है, न जाते। दोनों समझ गए कि आज डाँट पड़ी, शायद मजूरी भी कट जाय। चाल धीमी पड़ गई। इतने में चैनसिंह<br />ने पुकारा बढ़ आओ, बढ़ आओ, कैसे बेर हैं, लाओ जरा मुझे भी दो, मेरे ही पेड़ के हैं न?<br /><br />दोनों और भी सहम उठे। आज ठाकुर जीता न छोड़ेगा। कैसा मिठा-मिठाकर बोल रहा है। उतनी ही भिगो-भिगोकर लगायेगा। बेचारे और भी सिकुड़ गए।<br /><br />चैनसिंह ने फिर कहा, ज़ल्दी से आओ जी, पक्की-पक्की सब मैं ले लूँगा। जरा एक आदमी लपककर घर से थोड़ा-सा नमक तो ले लो ! ह्बाकी दोनों मजूरों से) तुम भी दोनों आ जाओ, उस पेड़ के बेर मीठे होते हैं। बेर खा ले, काम तो करना ही है।<br /><br />अब दोनों भगोड़ों को कुछ ढारस हुआ। सभी ने जाकर सब बेर चैनसिंह के आगे डाल दिए और पक्के-पक्के छांटकर उसे देने लगे। एक आदमी नमक लाने दौड़ा। आधा घण्टे तक चारों पुर बन्द रहे। जब सब बेर उड़ गए और ठाकुर चलने लगे, तो दोनों अपराधियों ने हाथ जोड़कर कहा - भैयाजी, आज जान बकसी हो जाय, बड़ी भूख लगी थी, नहीं तो कभी न जाते।<br /><br />चैनसिंह ने नम्रता से कहा - तो इसमें बुराई क्या हुई ? मैंने भी तो बेर खाए। एक-आधा घण्टे का हरज हुआ यही न ? तुम चाहोगे, तो घण्टे भर का काम आधा घण्टे में कर दोगे। न चाहोगे, दिन-भर में भी घण्टे-भर का काम न होगा।<br /><br />चैनसिंह चला गया, तो चारों बातें करने लगे।<br /><br />एक ने कहा - मालिक इस तरह रहे, तो काम करने में जी लगता है। यह नहीं कि हरदम छाती पर सवार।<br /><br />दूसरा - मैंने तो समझा, आज कच्चा ही खा जायेंगे।<br /><br />तीसरा - कई दिन से देखता हूँ, मिजाज नरम हो गया है।<br /><br />चौथा - साँझ को पूरी मजूरी मिले तो कहना।<br /><br />पहला - तुम तो हो गोबर-गनेस। आदमी का रुख नहीं पहचानते।<br /><br />दूसरा - अब खूब दिल लगाकर काम करेंगे।<br /><br />तीसरा - और क्या ! जब उन्होंने हमारे ऊपर छोड़ दिया, तो हमारा भी धरम है कि कोई कसर न छोड़ें।<br /><br />चौथा - मुझे तो भैया, ठाकुर पर अब भी विश्वास नहीं आता।<br /><br />एक दिन चैनसिंह को किसी काम से कचहरी जाना था। पाँच मील का सफर था। यों तो वह बराबर अपने घोड़े पर जाया करता था; पर आज धूप बड़ी तेज हो रही थी, सोचा एक्के पर चला चलूँ। महावीर को कहला भेजा मुझे लेते जाना। कोई नौ बजे महावीर ने पुकारा। चैनसिंह तैयार बैठा था। चटपट एक्के पर बैठ गया। मगर घोड़ा इतना दुबला हो रहा था, एक्के की गद्दी<br />इतनी मैली और फटी हुई, सारा सामान इतना रद्दी कि चैनसिंह को उस पर बैठते शर्म आई। पूछा - यह सामान क्यों बिगड़ा हुआ है महावीर? तुम्हारा घोड़ा तो इतना दुबला कभी न था; क्या आजकल सवारियाँ कम हैं क्या?<br /><br />महावीर ने कहा - नहीं मालिक, सवारियाँ काहे नहीं है; मगर लारियों के सामने एक्के को कौन पूछता है। कहाँ दो-ढाई-तीन की मजूरी करके घर लौटता था, कहाँ अब बीस आने पैसे भी नहीं मिलते ? क्या जानवर को खिलाऊँ क्या आप खाऊँ ? बड़ी विपत्ति में पड़ा हूँ। सोचता हूँ एक्का-घोड़ा बेच-बाचकर आप लोगों की मजूरी कर लूँ, पर कोई गाहक नहीं लगता। ज्यादा नहीं तो बारह आने तो घोड़े ही को चाहिए, घास ऊपर से। जब अपना ही पेट नहीं चलता, तो जानवर को कौन पूछे।<br /><br />चैनसिंह ने उसके फटे हुए कुरते की ओर देखकर कहा - दो-चार बीघे खेती क्यों नहीं कर लेते?<br /><br />महावीर सिर झुकाकर बोला - खेती के लिए बड़ा पौरुख चाहिए मालिक ! मैंने तो यही सोचा है कि कोई गाहक लग जाय, तो एक्के को औने-पौने निकाल दूँ, फिर घास छीलकर बाजार ले जाया करूँ। आजकल सास-पतोहू दोनों छीलती हैं। तब जाकर दस-बारह आने पैसे नसीब होते हैं। <br /><br />चैनसिंह ने पूछा - तो बुढ़िया बाजार जाती होगी?<br /><br />महावीर लजाता हुआ बोला - नहीं भैया, वह इतनी दूर कहाँ चल सकती है। घरवाली चली जाती है। दोपहर तक घास छीलती है, तीसरे पहर बाजार जाती है। वहाँ से घड़ी रात गये लौटती है। हलकान हो जाती है भैया, मगर क्या करूँ, तकदीर से क्या जोर।<br /><br />चैनसिंह कचहरी पहुँच गये और महावीर सवारियों की टोह में इधर-उधार इक्के को घुमाता हुआ शहर की तरफ चला गया। चैनसिंह ने उसे पाँच बजे आने को कह दिया। कोई चार बजे चैनसिंह कचहरी से फुरसत पाकर बाहर निकले। हाते में पान की दुकान थी, जरा और आगे बढ़कर एक घना बरगद का पेड़ था, उसकी छांह में बीसों ही ताँगे; एक्के, फिटनें खड़ी थीं। घोड़े खोल दिए गए थे। वकीलों, मुख्तारों और अफसरों की सवारियाँ यहीं खड़ी रहती थीं। चैनसिंह ने पानी पिया, पान खाया और सोचने लगा कोई लारी मिल जाय, तो जरा शहर चला जाऊँ कि उसकी निगाह एक घासवाली पर पड़ गई। सिर पर घास का झाबा रक्खे साईसों से मोल-भाव कर रही थी। चैनसिंह का ह्रदय उछल पड़ा यह तो मुलिया है ! बनी-ठनी, एक गुलाबी साड़ी पहने कोचवानों से मोल-तोल कर रही थी। कई कोचवान जमा हो गये थे। कोई उससे दिल्लगी करता था, कोई घूरता था, कोई हँसता था।<br /><br />एक काले-कलूटे कोचवान ने कहा - मूला, घास तो उड़के अधिक से अधिक छ: आने की है।<br /><br />मुलिया ने उन्माद पैदा करने वाली आँखो से देखकर कहा - छ: आने पर लेना है, तो सामने घसियारिनें बैठी हैं, चले जाओ, दो-चार पैसे कम में पा जाओगे, मेरी घास तो बारह आने में ही जायगी।<br /><br />एक अधेड़ कोचवान ने फिटन के ऊपर से कहा - तेरा जमाना है, बारह आने नहीं एक रुपया माँग। लेनेवाले झख मारेंगे और लेंगे। निकलने दे वकीलों को, अब देर नहीं है।<br /><br />एक ताँगेवाले ने, जो गुलाबी पगड़ी बाँधे हुए था, बोला - बुढ़ऊ के मुँह में पानी भर आया, अब मुलिया काहे को किसी की ओर देखेगी !<br /><br />चैनसिंह को ऐसा क्रोध आ रहा था कि इन दुष्टों को जूते से पीटे। सब-के-सब कैसे उसकी ओर टकटकी लगाये ताक रहे हैं, आँखो से पी जायेंगे। और मुलिया भी यहाँ कितनी खुश है। न लजाती है, न झिझकती है, न दबती है। कैसा मुसकिरा-मुसकिराकर, रसीली आँखो से देख-देखकर, सिर का अंचल खिसका-खिसकाकर, मुँह मोड़-मोड़कर बातें कर रही है। वही<br />मुलिया, जो शेरनी की तरह तड़प उठी थी।<br /><br />इतने में चार बजे। अमले और वकील-मुख्तारों का एक मेला-सा निकल पड़ा। अमले लारियों पर दौड़े। वकील-मुख्तार इन सवारियों की ओर चले। कोचवानों ने भी चटपट घोड़े जोते। कई महाशयों ने मुलिया को रसिक नेत्रों से देखा और अपनी-अपनी गाड़ियों पर जा बैठे।<br /><br />एकाएक मुलिया घास का झाबा लिये उस फिटन के पीछे दौड़ी। फिटन में एक अंग्रेजी फैशन के जवान वकील साहब बैठे थे। उन्होंने पावदान पर घास रखवा ली, जेब से कुछ निकालकर मुलिया को दिया। मुलिया मुस्कराई, दोनों में कुछ बातें भी हुईं, जो चैनसिंह न सुन सके।<br /><br />एक क्षण में मुलिया प्रसन्न-मुख घर की ओर चली। चैनसिंह पानवाले की दुकान पर विस्मृति की दशा में खड़ा रहा। पानवाले ने दुकान बढ़ाई, कपड़े पहिने और केबिन का द्वार बन्द करके नीचे उतरा तो चैनसिंह की समाधि टूटी। पूछा क्या दुकान बन्द कर दी ?<br /><br />पानवाले ने सहानुभूति दिखाकर कहा - इसकी दवा करो ठाकुर साहब, यह बीमारी अच्छी नहीं है !<br /><br />चैनसिंह ने चकित होकर पूछा - कैसी बीमारी?<br /><br />पानवाला बोला - कैसी बीमारी ! आधा घण्टे से यहाँ खड़े हो जैसे कोई मुरदा खड़ा हो। सारी कचहरी खाली हो गयी, सब दुकानें बन्द हो गयीं, मेहतर तक झाड़ू लगाकर चल दिये; तुम्हें कुछ खबर हुई ? यह बुरी बीमारी है, जल्दी दवा कर डालो।<br /><br />चैनसिंह ने छड़ी सॅभाली और फाटक की ओर चला कि महावीर का एक्का सामने से आता दिखाई दिया।<br /><br />कुछ दूर एक्का निकल गया, तो चैनसिंह ने पूछा - आज कितने पैसे कमाये महावीर?<br /><br />महावीर ने हँसकर कहा - आज तो मालिक, दिन भर खड़ा ही रह गया। किसी ने बेगार में भी न पकड़ा। ऊपर से चार पैसे की बीड़ियाँ पी गया।<br /><br />चैनसिंह ने जरा देर के बाद कहा - मेरी एक सलाह है। तुम मुझसे एक रुपया रोज लिया करो। बस, जब मैं बुलाऊँ तो एक्का लेकर चले आया करो। तब तो तुम्हारी घरवाली को घास लेकर बाजार न जाना पड़ेगा। बोलो मंजूर है ?<br /><br />महावीर ने सजल आँखो से देखकर कहा - मालिक, आप ही का तो खाता हूँ। आपकी परजा हूँ। जब मरजी हो, पकड़ मँगवाइए। आपसे रुपये...<br /><br />चैनसिंह ने बात काटकर कहा - नहीं, मैं तुमसे बेगार नहीं लेना चाहता। तुम मुझसे एक रुपया रोज ले जाया करो। घास लेकर घरवाली को बाजार मत भेजा करो। तुम्हारी आबरू मेरी आबरू है। और भी रुपये-पैसे का जब काम लगे, बेखटके चले आया करो। हाँ, देखो, मुलिया से इस बात की भूलकर भी चर्चा न करना। क्या फायदा !<br /><br />कई दिनों के बाद संध्या समय मुलिया चैनसिंह से मिली। चैनसिंह असामियों से मालगुजारी वसूल करके घर की ओर लपका जा रहा था कि उसी जगह जहाँ उसने मुलिया की बाँह पकड़ी थी, मुलिया की आवाज कानों में आयी। उसने ठिठककर पीछे देखा, तो मुलिया दौड़ी आ रही थी। बोला - क्या है मूला ! क्यों दौड़ती हो, मैं तो खड़ा हूँ ?<br /><br />मुलिया ने हाँफते हुए कहा - कई दिन से तुमसे मिलना चाहती थी। आज तुम्हें आते देखा, तो दौड़ी। अब मैं घास बेचने नहीं जाती।<br /><br />चैनसिंह ने कहा - बहुत अच्छी बात है।<br /><br />'क्या तुमने कभी मुझे घास बेचते देखा है?'<br /><br />'हाँ, एक दिन देखा था। क्या महावीर ने तुझसे सब कह डाला? मैंने तो मना कर दिया था।'<br /><br />'वह मुझसे कोई बात नहीं छिपाता।'<br /><br />दोनों एक क्षण चुप खड़े रहे। किसी को कोई बात न सूझती थी।<br /><br />एकाएक मुलिया ने मुस्कराकर कहा - यहाँ तुमने मेरी बाँह पकड़ी थी।<br /><br />चैनसिंह ने लज्जित होकर कहा - उसको भूल जाओ मूला। मुझ पर जाने कौन भूत सवार था।<br /><br />मुलिया गद्गद कण्ठ से बोली - उसे क्यों भूल जाऊँ। उसी बाँह गहे की लाज तो निभा रहे हो। गरीबी आदमी से जो चाहे करावे। तुमने मुझे बचा लिया। <br /><br />फिर दोनों चुप हो गये। जरा देर के बाद मुलिया ने फिर कहा - तुमने समझा होगा, मैं हँसने-बोलने में मगन हो रही थी?<br /><br />चैनसिंह ने बलपूर्वक कहा - नहीं मुलिया, मैंने एक क्षण के लिए भी नहीं समझा।<br /><br />मुलिया मुस्कराकर बोली, मुझे तुमसे यही आशा थी, और है।<br /><br />पवन सिंचे हुए खेतों में विश्राम करने जा रहा था, सूर्य निशा की गोद में विश्राम करने जा रहा था, और उस मलिन प्रकाश में चैनसिंह मुलिया की विलीन होती हुई रेखा को खड़ा देख रहा था<br />Rajhttp://www.blogger.com/profile/17416312611933993115noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-2254608446026408546.post-75635390931281675592011-08-04T11:57:00.000-07:002011-08-04T12:00:43.467-07:00महर्षि पतञ्जलि कृत् महाभाष्य- पस्पशाह्निकअथ शब्दानुशासनम् ।<br /> अथ इति अयम् शब्दः अधिकारार्थः प्रयुज्यते ।<br /><br /> शब्दानुशासनम् शास्त्रम् अधिकृतम् वेदितव्यम् ।<br /><br /> केषाम् शब्दानाम् ।<br /><br /> लौकिकानाम् वैदिकानाम् च ।<br /><br /> तत्र लौकिकाः तावत् गौः अश्वः पुरुषः हस्ती शकुनिः मृगः ब्राह्मणः इति ।<br /><br />वैदिकाः खलु अपि - शम् नः देवीः अभिष्टये ।<br /><br />इषे त्वा ऊर्जे त्वा ।<br /><br /> अग्निम् ईल्̥ए पुरोहितम् ।<br /><br /> अग्ने अयाहि वीतये इति ।<br /><br />अथ गौः इति अत्र कः शब्दः ।<br /><br />किम् यत् तत् सास्नालाङ्गूलककुदखुरविषाणि अर्थरूपम् सः शब्दः ।<br /><br />न इति आह ।<br /><br />द्रव्यम् नाम तत् ।<br /><br />यत् तर्हि तत् इङ्गितम् चेष्टितम् निमिषितम् सः शब्दः ।<br /><br />न इति आह ।<br /><br />क्रिया नाम सा ।<br /><br />यत् तर्हि तत् शुक्लः नीलः कृष्णः कपिलः कपोतः इति सः शब्दः ।<br /><br />न इति आह ।<br /><br />गुणः नाम सः ।<br /><br />यत् तर्हि तत् भिन्नेषु अभिन्नम् छिन्नेषु अच्छिन्नम् सामान्यभूतम् सः शब्दः ।<br /><br />न इति आह ।<br /><br />आकृतिः नाम सा ।<br /><br />कः तर्हि शब्दः ।<br /><br />येन उच्चारितेन सास्नालाङ्गूलककुदखुरविषाणिनाम् सम्प्रत्ययः भवति सः शब्दः ।<br /><br />अथ वा प्रतीतपदार्थकः लोके ध्वनिः शब्दः इति उच्यते ।<br /><br />तत् यथा शब्दम् कुरु मा शब्दम् कार्षीः शब्दकारी अयम् माणवकः इति ।<br /><br />ध्वनिम् कुर्वन् एवम् उच्यते ।<br /><br />तस्मात् ध्वनिः शब्दः ।<br /><br />कानि पुनः शब्दानुशासनस्य प्रयोजनानि ।<br /><br />रक्षोहागमलघ्वसन्देहाः प्रोयोजनम् ।<br /><br />रक्षार्थम् वेदानाम् अध्येयम् व्याकरणम् ।<br /><br />लोपागमवर्णविकारज्ञः हि सम्यक् वेदान् परिपालयिष्यति ।<br /><br />ऊहः खलु अपि. न सर्वैः लिङ्गैः न च सर्वाभिः विभक्तिभिः वेदे मन्त्राः निगदिताः. ते च अवश्यम् यज्ञगतेन यथायथम् विपरिणमयितव्याः. तान् न अवैयाकरणः शक्नोति यथायथम् विपरिणमयितुम्. तस्मात् अध्येयम् व्याकरणम् ।<br /><br />आगमः खलु अपि ।<br /><br />ब्राह्मणेन निष्कारणः धर्मः षडङ्गः वेदः अध्येयः ज्ञेयः इति ।<br /><br />प्रधानम् च षट्सु अङ्गेषु व्याकरणम् ।<br /><br />प्रधाने च कृतः यत्नः फलवान् भवति ।<br /><br />लघ्वर्थम् च अध्येयम् व्याकरणम्. ब्राह्मणेन अवश्यम् शब्दाः ज्ञेयाः इति ।<br /><br />न च अन्तरेण व्याकरणम् लघुना उपायेन शब्दाः शक्याः ज्ञातुम् ।<br /><br />असन्देहार्थम् च अध्येयम् व्याकरणम् ।<br /><br />याज्ञिकाः पठन्ति ।<br /><br />स्थूलपृषतीम् आग्निवारुणीम् अनड्वाहीम् आलभेत इति ।<br /><br />तस्याम् सन्देहः स्थूला च असौ पृषती च स्थूलपृषती स्थूलानि पृषन्ति यस्याः सा स्थूलपृषती ।<br /><br />ताम् न अवैयाकरणः स्वरतः अध्यवस्यति ।<br /><br />यदि पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ततः बहुव्रीहिः. अथ अन्तोदात्तत्वम् ततः तत्पुरुषः इति ।<br /><br />इमानि च भूयः शब्दानुशासनस्य प्रयोजनानि ।<br /><br />ते असुराः , दुष्टः शब्दः , यत् अधीतम् , यः तु प्रयुङ्क्ते , अविद्वांसः , विभक्तिम् कुर्वन्ति , यः वै इमाम् , चत्वारि , उत त्वः , सक्तुम् इव , सारस्वतीम् , दशम्याम् पुत्रस्य , सुदेवः असि वरुण इति ।<br /><br />ते असुराः ।<br /><br />ते असुराः हेलयः हेलयः इति कुर्वन्तः परा बभूवुः ।<br /><br />तस्मात् ब्राह्मणेन न म्लेच्छितवै न अपभाषितवै ।<br /><br />म्लेच्छः ह वै एषः यत् अपशब्दः ।<br /><br />म्लेच्छाः मा भूम इति अध्येयम् व्याकरणम् ।<br /><br />ते असुराः<br /><br />दुष्टः शब्दः ।<br /><br />दुष्टः शब्दः स्वरतः वर्णतः वा मिथ्या प्रयुक्तः न तम् अर्थम् आह ।<br /><br />सः वाग्वज्रः यजमानम् हिनस्ति यथा इन्द्रशत्रुः स्वरतः अपराधात् ।<br /><br />दुष्टान् शब्दान् मा प्रयुक्ष्महि इति अध्येयम् व्याकरणम् ।<br /><br />दुष्टः शब्दः ।<br /><br />यत् अधीतम् ।<br /><br />यत् अधीतम् अविज्ञातम् निगदेन एव शब्द्यते अनग्नौ इव शुष्कैधः न तत् ज्वलति कर्हि चित् ।<br /><br />तस्मात् अनर्थकम् मा अधिगीष्महि इति अध्येयम् व्याकरणम्. यत् अधीतम् ।<br /><br />यः तु प्रयुङ्क्ते ।<br /><br /> यः तु प्रयुङ्क्ते कुशलः विशेषे शब्दान् यथावत् व्यवहारकाले सः अनन्तम् आप्नोति जयम् परत्र वाग्योगवित् दुष्यति च अपशब्दैः ।<br /><br />कः ।<br /><br />वाग्योगवित् एव ।<br /><br />कुतः एतत् ।<br /><br />यः हि शब्दान् जानाति अपशब्दान् अपि असौ जानाति ।<br /><br />यथा एव हि शब्दज्ञाने धर्मः एवम् अपशब्दज्ञाने अपि अधर्मः ।<br /><br />अथ वा भूयान् अधर्मः प्राप्नोति ।<br /><br />भूयांसः अपशब्दाः अल्पीयांसः शब्दाः ।<br /><br />एकैकस्य हि शब्दस्य बहवः अपशब्दाः ।<br /><br />तत् यथा गौः इति अस्य शब्दस्य गावी गोणी गोता गोपोतलिका इति एवमादयः अपभ्रंशाः ।<br /><br />अथ यः अवाग्योगवित् ।<br /><br />अज्ञानम् तस्य शरणम् ।<br /><br />न अत्यन्ताय अज्ञानम् शरणम् भवितुम् अर्हति ।<br /><br />यः हि अजानन् वै ब्राह्मणम् हन्यात् सुराम् वा पिबेत् सः अपि मन्ये पतितः स्यात्. एवम् तर्हि सः अनन्तम् आप्नोति जयम् परत्र वाग्योगवित् दुष्यति च अपशब्दैः ।<br /><br />कः. अवाग्योगवित् एव ।<br /><br />अथ यः वाग्योगवित् ।<br /><br />विज्ञानम् तस्य शरणम् ।<br /><br />क्व पुनः इदम् पठितम् ।<br /><br />भ्राजाः नाम श्लोकाः ।<br /><br />किम् च भोः श्लोकाः अपि प्रमाणम् ।<br /><br />किम् च अतः ।<br /><br />यदि प्रमाणम् अयम् अपि श्लोकः प्रमाणम् भवितुम् अर्हति ।<br /><br />यत् उदुम्बरवर्णानाम् घटीनाम् मण्डलम् महत् पीतम् न स्वर्गम् गमयेत् किम् तत् क्रतुगतम् नयेत् इति ।<br /><br />प्रमत्तगीतः एषः तत्रभवतः ।<br /><br />यः तु अप्रमत्तगीतः तत् प्रमानम् ।<br /><br />यस् तु प्रयुङ्क्ते ।<br /><br />अविद्वांसः ।<br /><br />अविद्वांसः प्रत्यभिवादे नाम्नः ये प्लुतिम् न विदुः कामम् तेषु तु विप्रोष्य स्त्रीषु इव अयम् अहम् वदेत् ।<br /><br />अभिवादे स्त्रीवत् मा भूम इति अध्येयम् व्याकरणम् ।<br /><br />अविद्वांसः<br /><br />विभक्तिम् कुर्वन्ति ।<br /><br />याज्ञिकाः पठन्ति ॒ प्रयाजाः सविभक्तिकाः कार्याः इति ।<br /><br />न च अन्तरेण व्याकरणम् प्रयाजाः सविभक्तिकाः शक्याः कर्तुम्. विभक्तिम् कुर्वन्ति<br /><br />यः वै इमाम् ।<br /><br />यः वै इमाम् पदशः स्वरशः अक्षरशः वाचम् विदधाति सः आर्त्विजीनः ।<br /><br />आर्त्विजीनाः स्याम इति अध्येयम् व्याकरणम् ।<br /><br />यः वै इमाम् ।<br /><br />चत्वारि ।<br /><br />चत्वरि शृङ्गा त्रयः अस्य पदा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासः अस्य त्रिधा बद्धः वृषभः रोरवीति महः देवः मर्त्यान् अ विवेश ।<br /><br />चत्वारि शृङ्गानि चत्वारि पदजातानि नामाख्यातोपसर्गनिपाताः च ।<br /><br />त्रयः अस्य पादाः त्रयः कालाः भूतभविष्यद्वर्तमानाः ।<br /><br />द्वे शीर्षे द्वौ शब्दात्मानौ नित्यः कार्यः च ।<br /><br />सप्त हस्तासः अस्य सप्त विभक्तयः ।<br /><br />त्रिधा बद्धः त्रिषु स्थानेषु बद्धः उरसि कण्ठे शिरसि इति ।<br /><br />वृषभः वर्षणात् ।<br /><br />रोरवीति शब्दम् करोति ।<br /><br />कुतः एतत् ।<br /><br />रौतिः शब्दकर्मा ।<br /><br />महः देवः मर्त्यान् आविवेश इति ।<br /><br />महान् देवः शब्दः ।<br /><br />मर्त्याः मरणधर्माणः मनुष्याः ।<br /><br />तान् आविवेश ।<br /><br />महता देवेन नः साम्यम् यथा स्यात् इति अध्येयम् व्याकरणम् ।<br /><br />अपरः आह ॒ चत्वरि वक् परिमिता पदनि तनि विदुः ब्राह्मण ये मनीषिणः गुहा त्रीणि निहिता न इङ्गयन्ति तुरीयम् वाचः मनुष्याः वदन्ति ।<br />चत्वारि वाक् परिमिता पदानि ।<br /><br />चत्वारि पदजातानि नामाख्यातोपसर्गनिपाताः च ।<br /><br />तानि विदुः ब्राह्मणाः ये मनीषिणः ।<br /><br />मनसः ईषिणः मनीषिणः ।<br /><br />गुहा त्रीणि निहिता न इङ्गयन्ति ।<br /><br />गुहायाम् त्रीणि निहितानि न इङ्गयन्ति ।<br /><br />न चेष्टन्ते ।<br /><br />न निमिषन्ति इति अर्थः ।<br /><br />तुरीयम् वाचः मनुष्याः वदन्ति ।<br /><br />तुरीयम् ह वै एतत् वाचः यत् मनुष्येषु वर्तते ।<br /><br />चतुर्थम् इति अर्थः ।<br /><br />चत्वारि ।<br /><br />उत त्वः ।<br /><br />उत त्वः पश्यन् न ददर्श वचम् उत त्वः श्र्ण्वन् न शृणोति एनाम् उतो त्वस्मै तन्वम् विसस्रे जाय इव पत्ये उशती सुवसाः ।<br /><br />अपि खलु एकः पश्यन् अपि न पश्यति वाचम् ।<br /><br />अपि खलु एकः श्र्ण्वन् अपि न श्र्णोति एनाम् ।<br /><br />अविद्वांसम् आह अर्धम् ।<br /><br />उतो त्वस्मै तन्वम् विसस्रे ।<br /><br />तनुम् विवृणुते ।<br /><br />जाया इव पत्ये उशती सुवासाः ।<br /><br />तद् यथा जाया पत्ये कामयमाना सुवासाः स्वम् आत्मानम् विवृणुते एवम् वाक् वाग्विदे स्वात्मानम् विवृणुते ।<br /><br />वाक् नः विवृणुयात् आत्मानम् इति अध्येयम् व्याकरणम् ।<br /><br />उत त्वः ।<br /><br />सक्तुम् इव ।<br /><br />सक्तुम् इव तितौना पुनन्तः यत्र धीराः मनसा वचम् अक्रत अत्रा सखायः सख्यनि जानते भद्र एषाम् लक्ष्मीः निहिता अधि वाचि ।<br /><br />सक्तुः सचतेः दुर्धावः भवति ।<br /><br />कसतेः वा विपरीतात् विकसितो भवति ।<br /><br />तितौ परिपवनम् भवति ततवत् वा तुन्नवत् वा ।<br /><br />धीराः ध्यानवन्तः मनसा प्रज्ञानेन वाचम् अक्रत वाचम् अकृषत ।<br /><br />अत्रा सखायः सख्यानि जानते ।<br /><br />सायुज्यानि जानते ।<br /><br />क्व ।<br /><br />यः एषः दुर्घः मार्गः एकगम्यः वाग्विषयः ।<br /><br />के पुनः ते ।<br /><br />वैयाकरणाः ।<br /><br />कुतः एतत् ।<br /><br />भद्रा एषाम् लक्ष्मीः निहिता अधि वाचि ।<br /><br />एषाम् वाचि भद्रा लक्ष्मीः निहिता भवति ।<br /><br />लक्ष्मीः लक्षणात् भासनात् परिवृढा भवति ।<br /><br />सक्तुम् इव ।<br /><br />सारस्वतीम्. याज्ञिकाः पठन्ति ॒ आहिताग्निः अपशब्दम् प्रयुज्य प्रायश्चित्तीयाम् सारस्वतीम् इष्टिम् निर्वपेत् इति ।<br /><br />प्रायश्चित्तीयाः मा भूम इति अध्येयम् व्याकरणम् ।<br /><br />सारस्वतीम् ।<br /><br />दशम्याम् पुत्रस्य ।<br /><br />याज्ञिकाः पठन्ति ॒ दशम्युत्तरकालम् पुत्रस्य जातस्य नाम विदध्यात् घोषवदादि अन्तरन्तःस्थम् अवृद्धम् त्रिपुरुषानूकम् अनरिप्रतिष्ठितम् ।<br /><br />तत् हि प्रतिष्ठिततमम् भवति ।<br /><br />द्व्यक्षरम् चतुरक्षरम् वा नाम कृतम् कुर्यात् न तद्धितम् इति ।<br /><br />न च अन्तरेण व्याकरणम् कृतः तद्धिताः वा शक्याः विज्ञातुम् ।<br /><br />दशम्याम् पुत्रस्य ।<br /><br />सुदेवः असि ।<br /><br />सुदेवः असि वरुण यस्य ते सप्त सिन्धवः अनुक्षरन्ति काकुदम् सूर्म्यम् सुषिरम् इव ।<br /><br />सुदेवः असि वरुण सत्यदेवः असि यस्य ते सप्त सिन्धवः सप्त विभक्तयः ।<br /><br />अनुक्षरन्ति काकुदम् ।<br /><br />काकुदम् तालु ।<br /><br />काकुः जिह्वा सा अस्मिन् उद्यते इति काकुदम् ।<br /><br />सूर्म्यम् सुषिराम् इव ।<br /><br />तद् यथा शोभनाम् ऊर्मीम् सुषिराम् अग्निः अन्तः प्रविश्य दहति एवम् तव सप्त सिन्धवः सप्त विभक्तयः तालु अनुक्षरन्ति ।<br /><br />तेन असि सत्यदेवः ।<br />सत्यदेवाः स्याम इति अध्येयम् व्याकरणम् ।<br /><br />सुदेवः असि ।<br /><br />किम् पुनः इदम् व्याकरनम् एव अधिजिगांसमानेभ्यः प्रयोजनम् अन्वाख्यायते न पुनः अन्यत् अपि किम् चित् ।<br /><br />ओम् इति उक्त्वा वृत्तान्तशः शम् इति एवमादीन् शब्दान् पठन्ति ।<br /><br />पुराकल्पे एतत् आसीत् ॒ संस्कारोत्तरकालम् ब्राह्मणाः व्याकरणम् स्म अधीयते ।<br /><br />तेभ्यः तत्र स्थानकरणानुप्रदानज्ञेभ्यः वैदिकाः शब्दाः उपदिश्यन्ते ।<br /><br />तत् अद्यत्वे न तथा ।<br /><br />वेदम् अधीत्य त्वरिताः वक्तारः भवन्ति ॒ वेदात् नः वैदिकाः शब्दाः सिद्धाः लोकात् च लौकिकाः ।<br /><br />अनर्थकम् व्याकरणम् इति ।<br />तेभ्यः विप्रतिपन्नबुद्धिभ्यः अध्येतृभ्यः आचार्यः इदम् शास्त्रम् अन्वाचष्टे ॒ इमानि प्रयोजनानि अध्येयम् व्याकरणम् इति ।<br /><br />उक्तः शब्दः ।<br /><br />स्वरूपम् अपि उक्तम् ।<br /><br />प्रयोजनानि अपि उक्तानि ।<br /><br />शब्दानुशासनम् इदानीम् कर्तव्यम् ।<br /><br />तत् कथम् कर्तव्यम् ।<br /><br />किम् शब्दोपदेशः कर्तव्यः आहोस्वित् अपशब्दोपदेशः आहोस्वित् उभयोपदेशः इति ।<br /><br />अन्यतरोपदेशेन कृतम् स्यात् ।<br /><br />तत् यथा भक्ष्यनियमेन अभक्ष्यप्रतिषेधो गम्यते ।<br /><br />पञ्च पञ्चनखाः भक्ष्याः इति उक्ते गम्यते एतत् ॒ अतः अन्ये अभक्ष्याः इति ।<br />अभक्ष्यप्रतिषेधेन वा भक्ष्यनियमः ।<br /><br />तत् यथा अभक्ष्यः ग्राम्यकुक्कुटः अभक्ष्यः ग्राम्यशूकरः इति उक्ते गम्यते एतत् ॒ आरण्यः भक्ष्यः इति ।<br /><br />एवम् इह अपि ॒ यदि तावत् शब्दोपदेशः क्रियते गौः इति एतस्मिन् उपदिष्टे गम्यते एतत् ॒ गाव्यादयः अपशब्दाः इति ।<br /><br />अथ अपशब्दोपदेशः क्रियते गाव्यादिषु उपदिष्टेषु गम्यते एतत् ॒ गौः इति एषः शब्दः इति ।<br /><br />किम् पुनः अत्र ज्यायः ।<br /><br />लघुत्वात् शब्दोपदेशः ।<br /><br />लघीयान् शब्दोपदेशः गरीयान् अपशब्दोपदेशः ।<br /><br />एकैकस्य शब्दस्य बहवः अपभ्रंशाः ।<br /><br />तत् यथा ।<br /><br />गौः इति अस्य शब्दस्य गावीगोणीगोतागोपोतलिकादयः अपभ्रंशाः ।<br /><br />इष्टान्वाख्यानम् खलु अपि भवति ।<br /><br />अथ एतस्मिन् शब्दोपदेशे सति किम् शब्दानाम् प्रतिपत्तौ प्रतिपदपाठः कर्तव्यः ॒ गौः अश्वः पुरुषः हस्ती शकुनिः मृगः ब्राह्मणः इति एवमादयः शब्दाः पठितव्याः ।<br /><br />न इति आह ।<br /><br />अनभ्युपायः एषः शब्दानाम् प्रतिपत्तौ प्रतिपदपाठः ।<br /><br />एवम् हि श्रूयते ॒ बृहस्पतिः इन्द्राय दिव्यम् वर्षसहस्रम् प्रतिपदोक्तानाम् शब्दानाम् शब्दपारायणम् प्रोवाच न अन्तम् जगाम ।<br /><br />बृहस्पतिः च प्रवक्ता इन्द्रः च अध्येता दिव्यम् वर्षसहस्रम् अध्ययनकालः न च अन्तम् जगाम ।<br /><br />किम् पुनः अद्यत्वे ।<br /><br />यः सर्वथा चिरम् जीवति सः वर्षशतम् जीवति ।<br /><br />चतुर्भिः च प्रकारैः विद्या उपयुक्ता भवति आगमकालेन स्वाध्यायकालेन प्रवचनकालेन व्यवहारकालेन इति ।<br /><br />तत्र च आगमकालेन एव आयुः पर्युपयुक्तम् स्यात् ।<br /><br />तस्मात् अनभ्युपायः शब्दानाम् प्रतिपत्तौ प्रतिपदपाठः ।<br /><br />कथम् तर्हि इमे शब्दाः प्रतिपत्तव्याः ।<br /><br />किम् चित् सामन्यविशेषवत् लक्षणम् प्रवर्त्यम् येन अल्पेन यत्नेन महतः महतः शब्दौघान् प्रतिपद्येरन् ।<br /><br />किम् पुनः तत् ।<br /><br />उत्सर्गापवादौ ।<br /><br />कः चित् उत्सर्गः कर्तव्यः कः चित् अपवादः ।<br /><br />कथञ्जातीयकः पुनः उत्सर्गः कर्तव्यः कथञ्जातीयकः अपवादः ।<br /><br />सामन्येन उत्सर्गः कर्तव्यः ।<br /><br />तत् यथा कर्मणि अण् ।<br /><br />तस्य विशेषेण अपवादः ।<br /><br />तत् यथा ।<br /><br />आतः अनुपसर्गे कः ।<br /><br />किम् पुनः आकृतिः पदार्थः आहोस्वित् द्रव्यम् ।<br /><br />उभयम् इति आह ।<br /><br />कथम् ज्ञायते ।<br /><br />उभयथा हि आचार्येण सूत्राणि पठितानि ।<br /><br />आकृतिम् पदार्थम् मत्वा जात्याख्यायाम् एकस्मिन् बहुवचनम् अन्यतरस्याम् इति उच्यते ।<br /><br />द्रव्यम् पदार्थम् मत्वा सरूपाणाम् एकशेषः एकविभक्तौ इति एकशेषः आरभ्यते ।<br /><br />किम् पुनः नित्यः शब्दः आहोस्वित् कार्यः ।<br /><br />सङ्ग्रहे एतत् प्राधान्येन परीक्षितम् नित्यः वा स्यात् कार्यः वा इति ।<br /><br />तत्र उक्ताः दोषाः प्रयोजनानि अपि उक्तानि ।<br /><br />तत्र तु एषः निर्णयः यदि एव नित्यः अथ अपि कार्यः उभयथा अपि लक्षणम् प्रवर्त्यम् इति ।<br /><br />कथम् पुनः इदम् भगवतः पाणिनेः आचार्यस्य लक्षणम् प्रवृत्तम् ।<br /><br />सिद्धे शब्दार्थसम्बन्धे ।<br /><br />सिद्धे शब्दे अर्थे सम्बन्धे च इति ।<br /><br />अथ सिद्धशब्दस्य कः पदार्थः ।<br /><br />नित्यपर्यायवाची सिद्धशब्दः ।<br /><br />कथम् ज्ञायते ।<br /><br />यत् कूटस्थेषु अविचालिषु भावेषु वर्तते ।<br /><br />तत् यथा सिद्धा द्यौः , सिद्धा पृथिवी सिद्धम् आकाशम् इति ।<br /><br />ननु च भोः कार्येषु अपि वर्तते ।<br /><br />तत् यथा सिद्धः ओदनः , सिद्धः सूपः सिद्धा यवागूः इति ।<br /><br />यावता कार्येषु अपि वर्तते तत्र कुतः एतत् नित्यपर्यायवाचिनः ग्रहणम् न पुनः कार्ये यः सिद्धशब्दः इति ।<br /><br />सङ्ग्रहे तावत् कार्यप्रतिद्वन्द्विभावात् मन्यामहे नित्यपर्यायवाचिनः ग्रहणम् इति ।<br /><br />इह अपि तत् एव ।<br /><br />अथ वा सन्ति एकपदानि अपि अवधारणानि ।<br /><br />तत् यथा ॒ अब्भक्षः वायुभक्षः इति ।<br /><br />अपः एव भक्षयति वायुम् एव भक्षयति इति गम्यते ।<br /><br />एवम् इह अपि सिद्धः एव न साध्यः इति ।<br /><br />अथ वा पूर्वपदलोपः अत्र द्रष्टव्यः ॒ अत्यन्तसिद्धः सिद्धः इति ।<br /><br />तत् यथा देवदत्तः दत्तः , सत्यभामा भामा इति ।<br /><br />अथ वा व्याख्यानतः विशेषप्रतिपत्तिः न हि सन्देहात् अलक्षणम् इति नित्यपर्यायवाचिनः ग्रहणम् इति व्याख्यास्यामः ।<br /><br />किम् पुनः अनेन वर्ण्येन ।<br /><br />किम् न महता कण्ठेन नित्यशब्दः एव उपात्तः यस्मिन् उपादीयमाने असन्देहः स्यात् ।<br /><br />मङ्गलार्थम् ।<br /><br />माङ्गलिकः आचार्यः महतः शास्त्रौघस्य मङ्गलार्थम् सिद्धशब्दम् आदितः प्रयुङ्क्ते ।<br /><br />मङ्गलादीनि हि शास्त्राणि प्रथन्ते वीरपुरुषकाणि च भवन्ति आयुष्मत्पुरुषकाणि च ।<br /><br />अध्येतारः च सिद्धार्थाः यथा स्युः इति ।<br /><br />अयम् खलु अपि नित्यशब्दः न अवश्यम् कूटस्थेषु अविचालिषु भावेषु वर्तते ।<br /><br />किम् तर्हि ।<br /><br />आभीक्ष्ण्ये अपि वर्तते ।<br /><br />तत् यथा नित्यप्रहसितः नित्यप्रजल्पितः इति ।<br /><br />यावता आभीक्ष्ण्ये अपि वर्तते तत्र अपि अन्येन एव अर्थः स्यात् व्याख्यानतः विशेषप्रतिपत्तिः न हि सन्देहात् अलक्षणम् इति ।<br /><br />पश्यति तु आचार्यः मङ्गलार्थः च एव सिद्धशब्दः आदितः प्रयुक्तः भविष्यति शक्ष्यामि च एनम् नित्यपर्यायवाचिनम् वर्णयितुम् इति ।<br /><br />अतः सिद्धशब्दः एव उपात्तः न नित्यशब्दः<br /><br />अथ कम् पुनः पदार्थम् मत्वा एषः विग्रहः क्रियते सिद्धे शब्दे अर्थे सम्बन्धे च इति ।<br /><br />आकृतिम् इति आह ।<br /><br />कुतः एतत् ।<br /><br />आकृतिः हि नित्या ।<br /><br />द्रव्यम् अनित्यम् ।<br /><br />अथ द्रव्ये पदार्थे कथम् विग्रहः कर्तव्यः ।<br /><br />सिद्धे शब्दे अर्थसम्बन्धे च इति ।<br /><br />नित्यः हि अर्थवताम् अर्थैः अभिसम्बन्धः ।<br /><br />अथ वा द्रव्ये एव पदार्थे एषः विग्रहः न्याय्यः सिद्धे शब्दे अर्थे सम्बन्धे च इति. द्रव्यम् हि नित्यम् आकृतिः अनित्या ।<br /><br />कथम् ज्ञायते ।<br /><br />एवम् हि दृश्यते लोके ।<br /><br />मृत् कया चित् आकृत्या युक्ता पिण्डः भवति ।<br /><br />पिण्डाकृतिम् उपमृद्य घटिकाः किर्यन्ते ।<br /><br />घटिकाकृतिम् उपमृद्य कुण्डिकाः क्रियन्ते ।<br /><br />तथा सुवर्णम् कया चित् आकृत्या युक्तम् पिण्डः भवति ।<br /><br />पिण्डाकृतिम् उपमृद्य रुचकाः क्रियन्ते ।<br /><br />रुचकाकृतिम् उपमृद्य कटकाः क्रियन्ते ।<br /><br />कटकाकृतिम् उप्मृद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते ।<br /><br />पुनः आवृत्तः सुवर्णपिण्डः पुनः अपरया आकृत्या युक्तः खदिरागारसवर्णे कुण्डले भवतः ।<br /><br />आकृतिः अन्या च अन्या च भवति द्रव्यम् पुनः तद् एव ।<br /><br />आकृत्युपमर्देन द्रव्यम् एव अवशिष्यते ।<br /><br />आकृतौ अपि पदार्थे एषः विग्रहः न्याय्यः सिद्धे शब्दे अर्थे सम्बन्धे च इति ।<br /><br />ननु च उक्तम् आकृतिः अनित्या इति ।<br /><br />न एतत् अस्ति ।<br /><br />नित्या आकृतिः ।<br /><br />कथम् ।<br /><br />न क्व चित् उपरता इति कृत्वा सर्वत्र उपरता भवति ।<br /><br />द्रव्यान्तरस्था तु उपलभ्यते ।<br /><br />अथ वा न इदम् एव नित्यलक्षणम् ध्रुवम् कूटस्थम् अविचालि अनपायोपजनविकारि अनुत्पत्ति अवृद्धि अव्यययोगि इति तन् नित्यम् इति ।<br />तत् अपि नित्यम् यस्मिन् तत्त्वम् न विहन्यते ।<br /><br />किम् पुनः तत्त्वम् ।<br /><br />तद्भावः तत्त्वम् ।<br /><br />आकृतौ अपि तत्त्वम् न विहन्यते ।<br /><br />अथ वा किम् नः एतेन इदम् नित्यम् इदम् अनित्यम् इति ।<br /><br />यत् नित्यम् तम् पदार्थम् मत्वा एषः विग्रहः क्रियते सिद्धे शब्दे अर्थे सम्बन्धे च इति ।<br /><br />कथम् पुनः ज्ञायते सिद्धः शब्दः अर्थः सम्बन्धः च इति ।<br /><br />लोकतः ।<br /><br />यत् लोके अर्थम् उपादाय शब्दान् प्रयुञ्जते ।<br /><br />न एषाम् निर्वृत्तौ यत्नम् कुर्वन्ति ।<br /><br />ये पुनः कार्याः भावाः निर्वृत्तौ तावत् तेषाम् यत्नः क्रियते ।<br /><br />तत् यथा ।<br /><br />घटेन कार्यम् करिष्यन् कुम्भकारकुलम् गत्वा आह कुरु घटम् ।<br /><br />कार्यम् अनेन करिष्यामि इति ।<br /><br />न तद्वत् शब्दान् प्रयोक्ष्यमाणः वैयाकरणकुलम् गत्वा आह ।<br /><br />कुरु शब्दान् ।<br /><br />प्रयोक्ष्ये इति ।<br /><br />तावति एव अर्थम् उपादाय शब्दान् प्रयुञ्जते ।<br /><br />यदि तर्हि लोकः एषु प्रमाणम् किम् शास्त्रेण क्रियते ।<br /><br />लोकतः अर्थप्रयुक्ते शब्दप्रयोगे शास्त्रेण धर्मनियमः ।<br /><br />लोकतः अर्थप्रयुक्ते शब्दप्रयोगे शास्त्रेण धर्मनियमः क्रियते ।<br /><br />किम् इदम् धर्मनियमः इति ।<br /><br />धर्माय नियमः धर्मनियमः धर्मार्थः वा नियमः धर्मनियमः धर्मप्रयोजनः वा नियमः धर्मनियमः ।<br /><br />यथा लौकिकवैदिकेषु ।<br /><br />प्रियतद्धिताः दाक्षिणात्याः ।<br /><br />यथा लोके वेदे च इति प्रयोक्तव्ये यथा लौकिकवैदिकेषु इति प्रयुञ्जते ।<br /><br />अथ वा युक्तः एव तद्धितार्थः ।<br /><br />यथा लौकिकेषु वैदिकेषु च कृतान्तेषु ।<br /><br />लोके तावत् अभक्ष्यः ग्राम्यकुक्कुटः अभक्ष्यः ग्राम्यशूकरः इति उच्यते ।<br /><br />भक्ष्यम् च नाम क्षुत्प्रतीघातार्थम् उपादीयते ।<br /><br />शक्यम् च अनेन श्वमांसादिभिः अपि क्षुत् प्रतिहन्तुम् ।<br /><br />तत्र नियमः क्रियते ।<br /><br />इदम् भक्ष्यम् ।<br /><br />इदम् अभक्ष्यम् इति ।<br /><br />तथा खेदात् स्त्रीषु प्रवृत्तिः भवति ।<br /><br />समानः च खेदविगमः गम्यायाम् च अगम्यायाम् च ।<br /><br />तत्र नियमः क्रियते ॒ इयम् गम्या इयम् अगम्या इति ।<br /><br />वेदे खलु अपि पयोव्रतः ब्राह्मणः यवागूव्रतः राजन्यः आमिक्षाव्रतः वैश्यः इति उच्यते ।<br /><br />व्रतम् च नाम अभ्यवहारार्थम् उपादीयते ।<br /><br />शक्यम् च अनेन शालिमांसादीनि अपि व्रतयितुम् ।<br /><br />तत्र नियमः क्रियते ।<br /><br />तथा बैल्वः खादिरः वा यूपः स्यात् इति उच्यते ।<br /><br />यूपः च नाम पश्वनुबन्धार्थम् उपादीयते ।<br /><br />शक्यम् च अनेन किम् चित् एव काष्ठम् उच्छ्रित्य अनुच्छ्रित्य वा पशुः अनुबन्द्धुम् ।<br /><br />तत्र नियमः क्रियते ।<br /><br />तथा अग्नौ कपालानि अधिश्रित्य अभिमन्त्रयते ।<br /><br />भृगूणाम् अङ्गिरसाम् घर्मस्य तपसा तप्यध्वम् इति ।<br /><br />अन्तरेण अपि मन्त्रम् अग्निः दहनकर्मा कपालानि सन्तापयति ।<br /><br />तत्र नियमः क्रियते ।<br /><br />एवम् क्रियमाणम् अभ्युदयकारि भवति इति ।<br /><br />एवम् इह अपि समानायाम् अर्थगतौ शब्देन च अपशब्देन च धर्मनियमः क्रियते ।<br /><br />शब्देन एव अर्थः अभिधेयः न अपशब्देन इति ।<br /><br />एवम् क्रियमाणम् अभ्युदयकारि भवति इति ।<br /><br />अस्ति अप्रयुक्तः ।<br /><br />सन्ति वै शब्दाः अप्रयुक्ताः ।<br /><br />तत् यथा ऊष तेर चक्र पेच इति ।<br /><br />किम् अतः यत् सन्ति अप्रयुक्ताः ।<br /><br />प्रयोगात् हि भवान् शब्दानाम् साधुत्वम् अध्यवस्यति ।<br /><br />ये इदानीम् अप्रयुक्ताः न अमी साधवः स्युः ।<br /><br />इदम् विप्रतिषिद्धम् यत् उच्यते सन्ति वै शब्दाः अप्रयुक्ताः इति ।<br /><br />यदि सन्ति न अप्रयुक्ताः ।<br /><br />अथ अप्रयुक्ताः न सन्ति ।<br /><br />सन्ति च अप्रयुक्ताः च इति विप्रतिषिद्धम् ।<br /><br />प्रयुञ्जानः एव खलु भवान् आह सन्ति शब्दाः अप्रयुक्ताः इति ।<br /><br />कः च इदानीम् अन्यः भवज्जातीयकः पुरुषः शब्दानाम् प्रयोगे साधुः स्यात् ।<br /><br />न एतत् विप्रतिषिद्धम् ।<br /><br />सन्ति इति तावत् ब्रूमः यत् एतान् शास्त्रविदः शास्त्रेण अनुविदधते ।<br /><br />अप्रयुक्ताः इति ब्रूमः यत् लोके अप्रयुक्ताः इति ।<br /><br />यत् अपि उच्यते कः च इदानीम् अन्यः भवज्जातीयकः पुरुषः शब्दानाम् प्रयोगे साधुः स्यात् इति ।<br /><br />न ब्रूमः अस्माभिः अप्रयुक्ताः इति ।<br /><br />किम् तर्हि ।<br /><br />लोके अप्रयुक्ताः इति ।<br /><br />ननु च भवान् अपि अभ्यन्तरः लोके ।<br /><br />अभ्यन्तरः अहम् लोके न तु अहम् लोकः ।<br /><br />अस्ति अप्रयुक्तः इति चेत् न अर्थे शब्दप्रयोगात् ।<br /><br />अस्ति अप्रयुक्तः इति चेत् तत् न ।<br /><br />किम् कारणम् ।<br /><br />अर्थे शब्दप्रयोगात् ।<br /><br />अर्थे शब्दाः प्रयुज्यन्ते ।<br /><br />सन्ति च एषाम् शब्दानाम् अर्थाः येषु अर्थेषु प्रयुज्यन्ते ।<br /><br />अप्रयोगः प्रयोगान्यत्वात् ।<br /><br />अप्रयोगः खलु एषां शब्दानाम् न्याय्यः ।<br /><br />कुतः ।<br /><br />प्रयोगान्यत्वात् ।<br /><br />यत् एतेषाम् शब्दानाम् अर्थे अन्यान् शब्दान् प्रयुञ्जते ।<br /><br />तत् यथा ।<br /><br />ऊष इति एतस्य शब्दस्य अर्थे क्व यूयम् उषिताः ।<br /><br />तेर इति अस्य अर्थे किम् यूयम् तीर्णाः ।<br /><br />चक्र इति अस्य अर्थे किम् यूयम् कृतवन्तः ।<br /><br />पेच इति अस्य अर्थे किम् यूयम् पक्ववन्तः इति ।<br /><br />अप्रयुक्ते दीर्घसत्त्रवत् ।<br /><br />यदि अपि अप्रयुक्ताः अवश्यम् दीर्घसत्त्रवत् लक्षणेन अनुविधेयाः ।<br /><br />तत् यथा ।<br /><br />दीर्घसत्त्राणि वार्षशतिकानि वार्षसहस्रिकाणि च ।<br /><br />न च अद्यत्वे कः चित् अपि व्यवहरति ।<br /><br />केवलम् ऋषिसम्प्रदायः धर्मः इति कृत्वा याज्ञिकाः शास्त्रेण अनुविदधते ।<br /><br />सर्वे देशान्तरे ।<br /><br />सर्वे खलु अपि एते शब्दाः देशान्तरे प्रयुज्यन्ते ।<br /><br />न च एते उपलभ्यन्ते ।<br /><br />उपलब्धौ यत्नः क्रियताम् ।<br /><br />महान् हि शब्दस्य प्रयोगविषयः ।<br /><br />सप्तद्वीपा वसुमती त्रयः लोकाः चत्वारः वेदाः साङ्गाः सरहस्याः बहुधा विभिन्नाः एकशतम् अध्वर्युशाखाः सहस्रवर्त्मा सामवेदः एकविंसतिधा बाह्वृच्यम् नवधा आथर्वणः वेदः वाकोवाक्यम् इतिहासः पुराणम् वैद्यकम् इति एतावान् शब्दस्य प्रयोगविषयः ।<br />एतावन्तम् शब्दस्य प्रयोगविषयम् अननुनिशम्य सन्ति अप्रयुक्ताः इति वचनम् केवलम् साहसमात्रम् ।<br /><br />एतस्मिन् अतिमहति शब्दस्य प्रयोगविषये ते ते शब्दाः तत्र तत्र नियतविषयाः दृश्यन्ते ।<br /><br />तत् यथा ।<br /><br />शवतिः गतिकर्मा कम्बोजेषु एव भाषितः भवति ।<br /><br />विकारे एनम् आर्याः भाषन्ते शवः इति ।<br /><br />हम्मतिः सुराष्ट्रेषु रंहतिः प्राच्यमध्येषु गमिम् एव तु आर्याः प्रयुञ्जते ।<br /><br />दातिः लवनार्थे प्राच्येषु दात्रम् उदीच्येषु ।<br /><br />ये च अपि एते भवतः अप्रयुक्ताः अभिमताः शब्दाः एतेषाम् अपि प्रयोगः दृश्यते ।<br /><br />क्व ।<br /><br />वेदे ।<br /><br />यत् वः रेवतीः रेवत्यम् तत् ऊष ।<br /><br />यत् मे नरः श्रुत्यम् ब्रह्म चक्र ।<br /><br />यत्र नः चक्र जरसम् तनुनाम् इति ।<br /><br />किम् पुनः शब्दस्य ज्ञाने धर्मः आहोस्वित् प्रयोगे ।<br /><br />कः च अत्र विशेषः ।<br /><br />ज्ञाने धर्मः इति चेत् तथा अधर्मः ।<br /><br />ज्ञाने धर्मः इति चेत् तथा अधर्मः प्राप्नोति ।<br /><br />यः हि शब्दान् जानाति अपशब्दान् अपि असौ जानाति ।<br /><br />यथा एव शब्दज्ञाने धर्मः एवम् अपशब्दज्ञाने अपि अधर्मः ।<br /><br />अथ वा भूयान् अधर्मः प्राप्नोति ।भूयांसः अपशब्दाः अल्पीयांसः शब्दाः ।<br /><br />एकैकस्य शब्दस्य बहवः अपभ्रंशाः ।<br /><br />तत् यथा ।<br /><br />गौः इति अस्य गावी गोणी गोता गोपोतलिका इति एवमादयः अपभ्रंशाः ।<br /><br />आचारे नियमः ।<br /><br />आचारे पुनः ऋषिः नियमम् वेदयते ।<br /><br />ते असुराः हेलयः हेलयः इति कुर्वन्तः पराबभूवुः इति ।<br /><br />अस्तु तर्हि प्रयोगे ।<br /><br />प्रयोगे सर्वलोकस्य ।<br /><br />यदि प्रयोगे धर्मः सर्वः लोकः अभ्युदयेन युज्येत ।<br /><br />कः च इदानीम् भवतः मत्सरः यदि सर्वः लोकः अभ्युदयेन युज्येत ।<br /><br />न खलु कः चित् मत्सरः ।<br /><br />प्रयत्नानर्थक्यम् तु भवति ।<br /><br />फलवता च नाम प्रयत्नेन भवितव्यम् न च प्रयत्नः फलात् व्यतिरेच्यः ।<br /><br />ननु च ये कृतप्रयत्नाः ते साधीयः शब्दान् प्रयोक्ष्यन्ते ।<br /><br />ते एव साधीयः अभ्युदयेन योक्ष्यन्ते ।<br /><br />व्यतिरेकः अपि वै लक्ष्यते ।<br /><br />दृश्यन्ते हि कृतप्रयत्नाः च अप्रवीणाः अकृतप्रयत्नाः च प्रवीणाः ।<br /><br />तत्र फलव्यतिरेकः अपि स्यात् ।<br /><br />एवम् तर्हि न अपि ज्ञाने एव धर्मः न अपि प्रयोगे एव ।<br /><br />किम् तर्हि शास्त्रपूर्वके प्रयोगे अभ्युदयः तत् तुल्यम् वेदशब्देन ।<br /><br />शास्त्रपूर्वकम् यः शब्दान् प्रयुङ्क्ते सः अभ्युदयेन युज्यते ।<br /><br />तत् तुल्यम् वेदशब्देन ।<br /><br />वेदशब्दाः अपि एवम् अभिवदन्ति ।<br /><br />यः अग्निष्टोमेन यजते यः उ च एनम् एवम् वेद ।<br /><br />यः अग्निम् नाचिकेतम् चिनुते यः उ च एनम् एवम् वेद ।<br /><br />अपरः आह ॒ तत् तुल्यम् वेदशब्देन इति ।<br /><br />यथा वेदशब्दाः नियमपूर्वम् अधीताः फलवन्तः भवन्ति एवम् यः शास्त्रपूर्वकम् शब्दान् प्रयुङ्क्ते सः अभ्युदयेन युज्यते इति ।<br /><br />अथ वा पुनः अस्तु ज्ञाने एव धर्मः इति ।<br /><br />ननु च उक्तम् ज्ञाने धर्मः इति चेत् तथा अधर्मः इति ।<br /><br />न एषः दोषः ।<br /><br />शब्दप्रमाणकाः वयम् ।<br /><br />यत् शब्दः आह तत् अस्माकम् प्रमाणम् ।<br /><br />शब्दः च शब्दज्ञाने धर्मम् आह न अपशब्दज्ञाने अधर्मम् ।<br /><br />यत् च पुनः अशिष्टाप्रतिषिद्धम् न एव तत् दोषाय भवति न अभ्युदयाय ।<br /><br />तत् यथा ।<br /><br />हिक्कितहसितकण्डूयितानि न एव दोषाय भवन्ति न अपि अभ्युदयाय ।<br /><br />अथ वा अभ्युपायः एव अपशब्दज्ञानम् शब्दज्ञाने ।<br /><br />यः अपशब्दान् जानाति शब्दान् अपि असौ जानाति ।<br /><br />तत् एवम् ज्ञाने धर्मः इति ब्रुवतः अर्थात् आपन्नम् भवति अपशब्दज्ञानपूर्वके शब्दज्ञाने धर्मः इति ।<br /><br />अथ वा कूपखानकवत् एतत् भवति ।<br /><br />तत् यथा कूपखानकः खनन् यदि अपि मृदा पांसुभिः च अवकीर्णः भवति सः अप्सु सञ्जातासु ततः एव तम् गुणम् आसादयति येन सः च दोषः निर्हण्यते भूयसा च अभ्युदयेन योगः भवति एवम् इह अपि यदि अपि अपशब्दज्ञाने अधर्मः तथा अपि यः तु असौ शब्दज्ञाने धर्मः तेन सः च दोषः निर्घानिष्यते भूयसा च अभ्युदयेन योगः भविष्यति ।<br /><br />यत् अपि उच्यते आचारे नियमः इति याज्ञे कर्मणि सः नियमः ।<br />एवम् हि श्रूयते ।<br /><br />यर्वाणः तर्वाणः नाम ऋषयः बभूवुः प्रत्यक्षधर्माणः परापरज्ञाः विदितवेदितव्याः अधिगतयाथातथ्याः ।<br /><br />ते तत्रभवन्तः यत् वा नः तत् वा नः इति प्रोयोक्तव्ये यर् वा णः तर् वा णः इति प्रयुञ्जते याज्ञे पुनः कर्मणि न अपभाषन्ते ।<br /><br />तैः पुनः असुरैः याज्ञे कर्मणि अपभाषितम् ।<br /><br />ततः ते पराबभूताः ।<br /><br />अथ व्याकरणम् इति अस्य शब्दस्य कः पदार्थः ।<br /><br />सूत्रम् ।<br /><br />सूत्रे व्याकरणे षष्ठ्यर्थः अनुपपन्नः ।<br /><br />सूत्रे व्याकरणे षष्ठ्यर्थः न उपपद्यते व्याकरणस्य सूत्रम् इति ।<br /><br />किम् हि तत् अन्यत् सूत्रात् व्याकरणम् यस्य अदः सूत्रम् स्यात् ।<br /><br />शब्दाप्रतिपत्तिः ।<br />शब्दानाम् च अप्रतिपत्तिः प्राप्नोति व्याकरणात् शब्दान् प्रतिपद्यामहे इति ।<br /><br />न हि सूत्रतः एव शब्दान् प्रतिपद्यन्ते ।<br /><br />किम् तर्हि ।<br /><br />व्याख्यानतः च ।<br /><br />ननु च तत् एव सूत्रम् विगृहीतम् व्याख्यानम् भवति ।<br /><br />न केवलानि चर्चापदानि व्याख्यनम् वृद्धिः आत् ऐच् इति ।<br /><br />किम् तर्हि ।<br /><br />उदाहरणम् प्रत्युदाहरणम् वाक्याध्याहारः इति एतत् समुदितम् व्याख्यानम् भवति ।<br /><br />एवम् तर्हि शब्दः ।<br /><br />शब्दे ल्युडर्थः ।<br /><br />यदि शब्दः व्याकरणम् ल्युडर्थः न उपपद्यते व्याक्रियते अनेन इति व्याकरणम् ।<br /><br /> न हि शब्देन किम् चित् व्याक्रियते ।<br /><br />केन तर्हि ।<br /><br />सूत्रेण ।<br /><br />भवे ।<br /><br />भवे च तद्धितः न उपपद्यते व्याकरणे भवः योगः वैयाकरणः इति ।<br /><br />न हि शब्दे भवः योगः ।<br /><br />क्व तर्हि ।<br /><br />सूत्रे ।<br /><br />प्रोक्तादयः च तद्धिताः ।<br /><br />प्रोक्तादयः च तद्धिताः न उपपद्यन्ते पाणिनिना प्रोक्तम् पाणिनीयम् , आपिशलम् , काशकृत्स्नम् इति ।<br /><br />न हि पाणिनिना शब्दाः प्रोक्ताः ।<br /><br />किम् तर्हि ।<br /><br />सूत्रम् ।<br /><br />किमर्थम् इदम् उभयम् उच्यते भवे प्रोक्तादयः च तद्धिताः इति न प्रोक्तादयः च तद्धिताः इति एव भवे अपि तद्धितः चोदितः स्यात् ।<br /><br />पुरस्तात् इदम् आचार्येण दृष्टम् भवे तद्धितः इति तत् पठितम् ।<br /><br />ततः उत्तरकालम् इदम् दृष्टम् प्रोक्तादयः च तद्धिताः इति तत् अपि पठितम् ।<br /><br />न च इदानीम् आचार्याः सूत्राणि कृत्वा निवर्तयन्ति ।<br /><br />अयम् तावत् अदोषः यत् उच्यते शब्दे ल्युडर्थः इति ।<br /><br />न अवश्यम् करणाधिकरणयोः एव ल्युट् विधीयते किम् तर्हि अन्येषु अपि कारकेषु कृत्यल्युटः बहुलम् इति ।<br /><br />तत् यथा प्रस्कन्दनम् प्रपतनम् इति ।<br /><br />अथ वा शब्दैः अपि शब्दाः व्याक्रियन्ते ।<br /><br />तत् यथा गौः इति उक्ते सर्वे सन्देहाः निवर्तन्ते न अश्वः न गर्दभः इति ।<br /><br />अयम् तर्हि दोषः भवे प्रोक्तादयः च तद्धिताः इति ।<br /><br />एवम् तर्हि लक्ष्यलक्षणे व्याकरणम् ।<br /><br />लक्ष्यम् च लक्षणम् च एतत् समुदितम् व्याकरणम् भवति ।<br /><br />किम् पुनः लक्ष्यम् लक्षणम् च ।<br /><br />शब्दः लक्ष्यम् सूत्रम् लक्षणम् ।<br /><br />एवम् अपि अयम् दोषः समुदाये व्याकरणशब्दः प्रवृत्तः अवयवे न उपपद्यते ।<br /><br />सूत्राणि च अधीयानः इष्यते वैयाकरणः इति ।<br /><br />न एषः दोषः ।<br /><br />समुदायेषु हि शब्दाः प्रवृत्ताः अवयवेषु अपि वर्तन्ते ।<br /><br />तत् यथा पूर्वे पञ्चालाः , उत्तरे पञ्चालाः , तैलम् भुक्तम् , घृतम् भुक्तम् , शुक्लः , नीलः , कृष्णः इति ।<br /><br />एवम् अयम् समुदाये व्याकरणशब्दः प्रवृत्तः अवयवे अपि वर्तते ।<br /><br />अथ वा पुनः अस्तु सूत्रम् ।<br /><br />ननु च उक्तम् सूत्रे व्याकरणे षष्ठ्यर्थः अनुपपन्नः इति ।<br /><br />न एष दोषः ।<br /><br />व्यपदेशिवद्भावेन भविष्यति ।<br /><br />यत् अपि उच्यते शब्दाप्रतिपत्तिः इति न हि सूत्रतः एव शब्दान् प्रतिपद्यन्ते किम् तर्हि व्याख्यानतः च इति परिहृतम् एतत् तत् एव सूत्रम् विगृहीतम् व्याख्यानम् भवति इति ।<br /><br />ननु च उक्तम् न केवलानि चर्चापदानि व्याख्यानम् वृद्धिः आत् ऐच् इति किम् तर्हि उदाहरणम् प्रत्युदाहरणम् वाक्याध्याहारः इति एतत् समुदितम् व्याख्यानम् भवति इति ।<br /><br />अविजानतः एतत् एवम् भवति ।<br /><br />सूत्रतः एव हि शब्दान् प्रतिपद्यन्ते ।<br /><br />आतः च सूत्रतः एव यः हि उत्सूत्रम् कथयेत् न अदः गृह्येत ।<br /><br />अथ किमर्थः वर्णानाम् उपदेशः ।<br /><br />वृत्तिसमवायार्थः उपदेशः । वृत्तिसमवायार्थः वर्णानाम् उपदेशः कर्तव्यः ।<br /><br />किम् इदम् वृत्तिसमवयार्थः इति ।<br /><br />वृत्तये समवायः वृत्तिसमवायः , वृत्त्यर्थः वा समवायः वृत्तिसमवायः , वृत्तिप्रयोजनः वा वृत्तिसमवयः ।<br /><br />का पुनः वृत्तिः ।<br /><br />शास्त्रप्रवृत्तिः ।<br /><br />अथ कः समवयः ।<br /><br />वर्णानाम् आनुपूर्व्येण सन्निवेशः ।<br /><br />अथ कः उपदेशः ।<br /><br />उच्चारणम् ।<br /><br />कुतः एतत् ।<br /><br />दिशिः उच्चारणक्रियः ।<br /><br />उच्चार्य हि वर्णान् आह ॒ उपदिष्टाः इमे वर्णाः इति ।<br /><br />अनुबन्धकरणार्थः च । अनुबन्धकरणार्थः च वर्णानाम् उपदेशः कर्तव्यः ।<br /><br />अनुबन्धान् आसङ्क्ष्यामि इति ।<br /><br />न हि अनुपदिश्य वर्णान् अनुबन्धाः शक्याः आसङ्क्तुम् ।<br /><br />सः एषः वर्णानाम् उपदेशः वृत्तिसमवायार्थः च अनुबन्धकरणार्थः च ।<br /><br />वृत्तिसमवायः च अनुबन्धकरणार्थः च प्रत्याहारार्थम् ।<br /><br />प्रत्याहारः वृत्त्यर्थः ।<br /><br />इष्टबुद्ध्यर्थः च ।<br /><br />इष्टबुद्ध्यर्थः च वर्णानाम् उपदेशः ।<br /><br />इष्टान् वर्णान् भोत्स्ये इति ।<br /><br />इष्टबुद्ध्यर्थः च इति चेत् उदात्तानुदात्तस्वरितानुनासिक्दीर्घप्लुतानाम् अपि उपदेशः । इष्टबुद्ध्यर्थः च इति चेत् उदात्तानुदात्तस्वरितानुनासिक्दीर्घप्लुतानाम् अपि उपदेशः कर्तव्यः ।<br /><br />एवङ्गुणाः अपि हि वर्णाः इष्यन्ते ।<br /><br />आकृत्युपदेशात् सिद्धम् ।<br /><br />आकृत्युपदेशात् सिद्धम् एतत् ।<br /><br />अवर्णाकृतिः उपदिष्टा सर्वम् अवर्णकुलम् ग्रहीष्यति ।<br /><br />तथा इवर्णकुलाकृतिः ।<br /><br />तथा उवर्णकुलाकृतिः ।<br /><br />आकृत्युपदेशात् सिद्धम् इति चेत् संवृतादीनाम् प्रतिषेधः ।<br /><br />आकृत्युपदेशात् सिद्धम् इति चेत् संवृतादीनाम् प्रतिषेधः वक्तव्यः ।<br /><br />के पुनः संवृतादयः ।<br /><br />संवृतः कलः ध्मातः एणीकृतः अम्बूकृतः अर्धकः ग्रस्तः निरस्तः प्रगीतः उपगीतः क्ष्विण्णः रोमशः इति ।<br /><br />अपरः आह ॒ ग्रस्तम् निरस्तम् अविलम्बितम् निर्हतम् अम्बूकृतम् ध्मातम् अथो विकम्पितम् सन्दष्टम् एणीकृतम् अर्धकम् द्रुतम् विकीर्णम् एताः स्वरदोषभावनाः इति ।<br /><br />अतः अन्ये व्यञ्जनदोषाः ।<br /><br />न एषः दोषः ।<br /><br />गर्गादिबिदादिपाठात् संवृतादीनाम् निवृत्तिः भविष्यति ।<br /><br />अस्ति अन्यत् गर्गादिबिदादिपाठे प्रयोजनम् ।<br /><br />किम् ।<br /><br />समुदायानाम् साधुत्वम् यथा स्यात् इति ।<br /><br />एवम् तर्हि अष्टादशधा भिन्नाम् निवृत्तकलादिकाम् अवर्णस्य प्रत्यापत्तिम् वक्ष्यामि ।<br /><br />सा तर्हि वक्तव्या ।<br /><br />लिङ्गार्था तु प्रत्यापत्तिः ।<br /><br />लिङ्गार्थ सा तर्हि भविष्यति ।<br /><br />तत् तर्हि वक्तव्यम् ।<br /><br />यदि अपि एतत् उच्यते अथ वा एतर्हि अनुबन्धशतम् न उच्चार्यम् इत्सञ्ज्ञा च न वक्तव्या लोपः च न वक्तव्यः ।<br /><br />यत् अनुबन्धैः क्रियते तत् कलादिभिः करिष्यति ।<br /><br />सिध्यति एवम् अपाणिनीयम् तु भवति ।<br /><br />यथान्यासम् एव अस्तु ।<br /><br />ननु च उक्तम् आकृत्युपदेशात् सिद्धम् इति चेत् संवृतादीनाम् प्रतिषेधः इति ।परिहृतम् एतत् गर्गादिबिदादिपाठात् संवृतादीनाम् निवृत्तिः भविष्यति ।<br /><br />ननु च अन्यत् गर्गादिबिदादिपाठे प्रयोजनम् उक्तम् ।<br /><br />किम् ।<br /><br />समुदायानाम् साधुत्वम् यथा स्यात् इति ।<br /><br />एवम् तर्हि उभयम् अनेन क्रियते ।<br /><br />पाठः च एव विशेष्यते कलादयः च निवर्त्यन्ते ।<br /><br />कथम् पुनः एकेन यत्नेन उभयम् लभ्यम् ।<br /><br />लभ्यम् इति आह ।<br /><br />कथम् ।<br /><br />द्विगताः अपि हेतवः भवन्ति ।<br /><br /> तत् यथा ॒ आम्राः च सिक्ताः पितरः च प्रीणिताः इति ।<br /><br />तथा वाक्यानि अपि ड्विष्ठानि भवन्ति ।<br /><br />श्वेतः धावति , अलम्बुसानाम् याता इति ।<br /><br />अथ वा इदम् तावत् अयम् प्रष्टव्यः ।<br /><br />क्वे इमे संवृतादयः श्रूयेरन् इति ।<br /><br />आगमेषु ।<br /><br />आगमाः शुद्धाः पठ्यन्ते ।<br /><br />विकारेषु तर्हि ।<br /><br />विकाराः शुद्धाः पठ्यन्ते ।<br /><br />प्रत्ययेषु तर्हि ।<br /><br />प्रत्ययाः शुद्धाः पठ्यन्ते ।<br /><br />धातुषु तर्हि ।<br /><br />धातवः अपि शुद्धाः पठ्यन्ते ।<br /><br />प्रातिपदिकेषु तर्हि ।<br /><br />प्रातिपदिकानि अपि शुद्धानि पठ्यन्ते ।<br /><br />यानि तर्हि अग्रहणानि प्रातिपदिकानि ।<br /><br />एतेषाम् अपि स्वरवर्णानुपूर्वीज्ञानार्थः उपदेशः कर्तव्यः ।<br /><br />शशः षषः इति मा भूत् ।<br /><br />पलाशः पलाषः इति मा भूत् ।<br /><br />मञ्चकः मञ्जकः इति मा भूत् ।<br /><br />आगमाः च विकाराः च प्रत्ययाः सह धातुभिः उच्चार्यन्ते ततः तेषु न इमे प्राप्ताः कलादयः ।Rajhttp://www.blogger.com/profile/17416312611933993115noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2254608446026408546.post-49951231284449014222011-02-26T12:08:00.000-08:002011-02-26T12:16:52.153-08:00खुश हूँज़िन्दगी है छोटी, पर मैं खुश हूँ।<br />जैसे भी हालात में हूँ, इस हालात में खुश हूँ।<br />आज गाड़ी में जाने का वक्त नहीं, दो कदम चलकर ही खुश हूँ।<br />आज किसी का साथ नहीं है,किताब पढ़ के ही खुश हूँ।<br />आज कोई नाराज़ है, उसके इस अन्दाज़ में ही खुश हूँ।<br />जिसको पा नहीं सकता, उसकी याद में ही खुश हूँ।<br />बीता हुआ कल जा चुका है, उसकी मीठी यादों में ही खुश हूँ।<br />धीरे- धीरे ये पल बीतेंगे, ये सोचकर ही खुश हूँ।<br />ज़िन्दगी है छोटी, पर हर पल मैं खुश हूँ॥<br />॥ खुश हूँ ॥<br /><br />[एक दोस्त]Rajhttp://www.blogger.com/profile/17416312611933993115noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-2254608446026408546.post-4891352866580250162010-04-16T09:37:00.000-07:002010-04-16T09:38:38.956-07:00Reservationआरक्षण – एक ऐसा विषय है जो आज भी सबसे विवादास्पद है । सभी राजनीतिक संगठन अपने निहित तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों के लिए इसका प्रयोग कर रहे हैं । अब समय आ गया है कि भारतीय जनमानस को यह वास्तविकता समझ लेनी चाहिये कि आरक्षण देश को सामाजिक समता नहीं, अपितु जातीय विद्वेश का प्रसार कर रहा है । यह देश को आगे नहीं, अपितु पीछे ले जा रहा है । अभी हाल में एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन में किये गये सर्वेक्षण में यह पता चला कि भारत मानव विकास सूचकांक में अपने पडोसियों से भी पीछे १३२वें क्रमाङ्क पर रहा । यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना अनिवार्य है कि यदि देश से आरक्षण रूपी दानव नहीं गया तो वह दिन दूर नहीं जब २०६ देशों के विश्व में भारत का स्थान अन्तिम पायदान पर होगा । भारतीय जनमानस और भारतीय नेताओं को यह बात भली-भाँति समझ लेनी चाहिये कि आरक्षण से किसी भी अवस्था में किसी का उत्थान नहीं कर रहा है, अपितु पिछडे और् अनुसूचित जातियों- जनजातोयों को अकर्मण्य बना रहा है । इसका सबसे बडा उदाहरण अभी हाल ही में आयोजित राजस्थान तृतीय श्रेणी की शिक्षक नियुक्ति परीक्षा में देखने को मिला । उक्त परीक्षा में ऐसे परीक्षार्थी शिक्षक बने हैं जिनका परीक्षा में अङ्क नकारात्मक(-५ तक) रहा था । अब ऐसे शिक्षक हमारी आगामी पीढी को क्या शिक्षा देंगे, जो कि स्वयं एक परीक्षा में उत्तीर्ण तो दूर सकारात्मक अङ्क तक नहीं पा सके । कहने को भारत सरकार ने मौलिक अधिकारों में संशोधन करते हुए शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया । परन्तु ऐसे अधिकार से क्या मिलेगा, जिनको प्राप्त करने में ऐसे शिक्षकों को प्रयोग किया जा रहा है । स्वयं आरक्षण की माँग करते हुए अम्बेडकर ने कहा था कि इसको केवल दश वर्षों के लिये लागू किया जाना चाहिये, परन्तु आज स्थिति यह है कि जो भी सरकार सत्ता में रहती है वह संशोधन पर संशोधन करते हुए इसको अगले दश वर्षों के लिये बढा देती है । इसका एक प्रमुख कारण यह है कि सत्तासीन संगठन अपना वोट बैंक कमजोर नहीं करना चाहतीं । अभी हाल ही में महिला आरक्षण विधेयक राज्य सभा में पारित हुआ । साथ-ही-साथ रङ्गनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशों पर आधारित मुस्लिम आरक्षण की सुगबुगाहट आने लगी । आने वाले भविष्य में यह सम्भव है कि ईसाई, बौद्ध, जैन.. यहाँ तक कि सामान्य जातियों को भी आरक्षण देने के लिये समितियाँ गठित की जाय । पुनश्च प्रश्न यह उठता है कि यह आरक्षण किसको और किससे बचने के लिये दिया जाय़ । वस्तुतः यह कोई विवाद का विषय नहीं कि आरक्षण किसको मिले अपितु विवाद इससे पर है कि क्या इससे भारतवर्ष का विकास होगा ? अधिकांश लोग कहते हैं कि आजकल प्रतिभा पलायन कर रही है । इसका सीधा सा उत्तर है कि प्रतिभा वहीं जायेगी जहां उसका सम्मान होगा । वो सम्मान चाहे अमेरिका, ब्रिटेन में मिले या रूस इत्यादि देशों में । अब भी समय है कि इस देश का जनमानस इस वास्तविकता को समझ ले, अन्यथा…………..Rajhttp://www.blogger.com/profile/17416312611933993115noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2254608446026408546.post-44465453983227881742009-07-08T13:12:00.000-07:002011-11-08T09:22:04.153-08:00My M. Phil. Synopsisएम. फिल हेतु शोधप्रस्ताव<br />अमरकोष में “धी-वर्ग” का विवेचन<br />(“रामाश्रमी” टीका के विशेष आलोक में)<br />रजनीश कुमार पाण्डेय<br />विषय चयन का औचित्य 5-7<br />इस क्षेत्र में हुए शोध कार्यों का सर्वेक्षण 7<br />प्राथमिक स्रोत 7-8<br />शोध प्रविधि 8<br />अस्थायी अध्याय विभाजन 8<br /> <br />1.विषय-क्षेत्र एवं उद्देश्य (Scope and Objective) – संसार की भाषाओं के क्रमिक विकास का ज्ञान उनके कोष ग्रन्थों के अध्ययन पर निर्भर करता है । राष्ट्र के मस्तिष्क की सबलता उसके साहित्य की भित्ति पर है । साहित्य की अभिवृद्धि पर कोष की वृद्धि होती है – यह सर्वमान्य सिद्धान्त है । जिस भाषा में जितने अधिक कोष ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, वह उतनी ही सजीव मानी जाती है । अतः साहित्य और कोष का पारस्परिक दृढ़ सम्बन्ध है । कहा भी गया है –<br /> “ अवैयाकरणस्त्वन्धः बधिरः कोषविवर्जितः ।“<br /> बिना कोष के राजा और बिना कोष के विद्वान् निरर्थक हैं । इस सम्बन्ध में संस्कृत भाषा अत्यन्त समृद्ध रही है । वैदिककाल से लेकर आज तक संस्कृत भाषा में अनेक कोष ग्रन्थों की रचना की जा चुकी है । प्राचीनतम कोष “निघण्टु” के नाम से प्रसिद्ध है । सिंहली भाषा में कोष को “निघण्टु” नाम से ही जाना जाता है । कोष का एक उद्देश्य कविजनों को काव्यकला के विस्तार करने में सहायता देना होता है । मुख्यतः कोष ग्रन्थों की रचना अनुष्टुप् और आर्या नामक छन्दों में हुई है ।<br /> मुख्यतः कोष दो प्रकार के होते हैं –<br />१. समानार्थ कोष -: जिनमें शब्दों का सङ्ग्रह विषय के क्रम से किया गया हो ।<br />२. अनेकार्थ / नानार्थ कोष -: जिनमें एक शब्द के अनेक अर्थों का चयन किया गया हो ।<br />संस्कृत कोषकारों में कात्य, वाचस्पति, व्याडि, भागुरि, अमर, मङ्गल, हेमचन्द्र आदि प्रसिद्ध है । अमरसिंह कृत अमरकोष, हलायुध कृत अभिधानरत्नमाला, यादवप्रकाश कृत वैजयन्तीकोष, महेश्वर कृत विश्वप्रकाश, मेदिनिकर कृत मेदिनिकोष, मंख कृत अनेकार्थकोष इत्यादि संस्कृत साहित्य के प्रमुख कोष ग्रन्थ हैं । प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में अमरसिंह कृत अमरकोष के धी-वर्ग का विवेचन “रामाश्रमी” टीका के साथ करना अभीष्ट है ।<br />अमरकोष -: अमरकोष के रचनाकार अमरसिंह हैं । जो स्थान व्याकरण में पाणिनि का, काव्यशास्त्र में मम्मट का, अद्वैतवेदान्त में शङ्कर का तथा वैदिककाल में यास्क का है, वही स्थान संस्कृत कोषशास्त्र में अमरसिंह का है । आज भी यह परम्परा प्रचलित है कि अमरसिंह विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे ।<a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftn1" name="_ftnref1">[1]</a> इसके अतिरिक्त आठ शाब्दिकों में भी वे एक माने जाते हैं ।<a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftn2" name="_ftnref2">[2]</a> किन्तु इसके आधार पर भी अमरसिंह के देश-काल के विषय में निश्वित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता । क्योंकि विक्रमादित्य का समय-निर्धारण ही निश्चित रूप से नहीं किया जा सकता । फिर भी विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर इनका समय चतुर्थ शताब्दी रखा जा सकता है ।<a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftn3" name="_ftnref3">[3]</a> क्योंकि छठी शताब्दी में अमरकोष का चीनी भाषा में अनुवाद प्राप्त होता है । अतः अमरसिंह का समय छठी शताब्दी से पूर्व ही रहा होगा । क्षीरस्वामी तथा सर्वानन्द – दोनों मान्य टीकाकारों के अनुसार, अमरसिंह बौद्ध थे ।<a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftn4" name="_ftnref4">[4]</a><br /> अमरकोष के तीन नाम मिलते हैं –<br />क. अमरकोष<br />ख. नामलिङ्गानुशासन<br />ग. त्रिकाण्ड / त्रिकाण्डी<br />अमरकोष संस्कृत वाङ्मय का पर्याय-कोष है । अंग्रेजी भाषा में पहला और प्रामाणिक पर्याय कोष Roget द्वारा रचित “Thesaurus” है । अमरकोष की महत्ता इसी तथ्य से स्पष्ट होती है कि इसे विश्व का पिता कहा गया है –<br />“ अष्टाध्यायी जगन्माता अमरकोषो जगत्पिता । “<br /> इसके अतिरिक्त, अमरकोष पर अब तक ४० से अधिक टीकाओं का प्रणयन किया जा चुका है । जिससे इसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है । अमरकोष में कुल तीन काण्ड है –<br />क. प्रथम काण्ड -: प्रथम काण्ड स्वरकाण्ड है । इसमें कुल दस वर्ग हैं, जो निम्नलिखित हैं –<br />१.स्वर्ग वर्ग, २. व्योम वर्ग, ३. दिक् वर्ग ४. काल वर्ग ५. धी वर्ग, ६. शब्दादि वर्ग, ७. नाट्य वर्ग, ८. पातालभोगि वर्ग, ९. नरक वर्ग, १०. वारिवर्ग<br /> ख. द्वितीय काण्ड -: द्वितीय काण्ड भूम्यादिकाण्ड है । इसमें कुल दस वर्ग हैं -<br /> १. भूमि वर्ग, २. पुर वर्ग, ३. शैल वर्ग, ४. वनौषधि वर्ग, ५. सिंहादि वर्ग,<br /> ६. मनुष्यवर्ग, ७. ब्रह्मवर्ग, ८. क्षत्रिय वर्ग, ९. वैश्य वर्ग, १०. शूद्र वर्ग<br /> ग. तृतीय काण्ड -: तृतीय काण्ड समाख्या काण्ड है । इसमें कुल पाँच वर्ग हैं -<br /> १. विशेष्यनिघ्न वर्ग, २. सङ्कीर्ण वर्ग, ३. नानार्थ वर्ग,<br /> ४.अव्यय वर्ग, ५. लिङ्गादिसङ्ग्रह वर्ग <br /> इस प्रकार सम्पूर्ण अमरकोष में तीन काण्ड, पच्चीस वर्ग तथा १५०० अनुष्टुप् हैं । अमरसिंह स्वयं स्वीकार करते हैं कि अमरकोष में परिगणित शब्दों के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी शब्द हैं जिनको उन्होंने छोड़ दिया है ।<a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftn5" name="_ftnref5">[5]</a> प्रस्तुत लघु शोध प्रबन्ध में सम्पूर्ण अमरकोष का अध्ययन करना सम्भव नहीं है । अतः प्रथम काण्ड में उल्लिखित “धी वर्ग” का विवेचन “रामाश्रमी” टीका के साथ करना प्रस्तुत शोध प्रबन्ध का उद्देश्य है । धी वर्ग में मुख्यतया बुद्धि, अहंकार, रंगों, गन्ध, रस इत्यादि के पर्यायों का उल्लेख किया गया है । <br /> रामाश्रमी टीका में, अमरकोश में परिगणित शब्दों की व्युत्पत्ति और निरुक्ति दिया गया है । अभी तक इस टीका का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध नहीं है । शोधार्थी की दृष्टि में रामाश्रमी टीका से सम्बन्धित कोई भी शोध प्रबन्ध प्राप्त नहीं होता ।<br /><br />विषय चयन का औचित्य -: शोधार्थी ने परास्नातक (तृतीय व चतुर्थ सत्र) में हलायुध कोष पर कार्य किया है । तृतीय-सत्र में Lexicography नामक विषय भी परास्नातक के समय पढा़या गया था । यद्यपि शोधार्थी कतिपय कारणों से यह विषय नहीं पढ़ पाया, तथापि उपर्युक्त कारणों से ही शोधार्थी का ध्यान कोषविषयक शोधकार्य की ओर आकृष्ट हुआ ।<br /> अमरकोष में धीवर्ग के अन्तर्गत बुद्धि सम्बन्धी विभिन्न शब्दों के पर्यायों का उल्लेख किया गया है । किन्तु ऐसा नहीं है कि प्रत्येक पर्यायवाची शब्द वस्तु के एक ही अर्थ को प्रस्तुत करते हों, अपितु प्रत्येक पर्यायवाची शब्द वस्तु के विशिष्ट अर्थ को प्रस्तुत करते हैं । यथा - बुद्धि शब्द के पर्यायों की चर्चा करते हुए धीवर्ग में कहा गया है –<br /> “बुद्धिर्मनीषा धिषणा धीः प्रज्ञा शेमुषी मतिः ।<br /> प्रेक्षोपलब्धिश्चित्संवित्प्रतिपज्ज्ञप्तिचेतनाः ॥ १ ॥<a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftn6" name="_ftnref6">[6]</a><br /> अर्थात् बुद्धि, मनीषा, धिषणा, धीः, प्रज्ञा, शेमुषी, मति, प्रेक्षा, उपलब्धि, चित्, संवित्, प्रतिपत्, ज्ञप्ति, , चेतना - ये बुद्धि के १४ पर्याय हैं । और सभी स्त्रीलिङ्ग हैं ।<br /> इनमें से कुछ पर्यायों की निरुक्ति और व्युत्पत्ति रामाश्रमी टीका के आधार पर निम्नलिखित है –<br /> निरुक्ति व्युत्पत्ति<br />१. बुद्धि -: बुध्यतेऽनया, बोधनं वा । बुध् धातु + क्तिन् प्रत्यय<br />२. मनीषा -: मनस ईषा मनस् धातु + ईष प्रत्यय<br /> (ईष गतिहिंसादर्शनेषु)<br /> ’गुरोश्च हलः’ इत्यप्रत्ययः मनस ईषा<br /> शकन्ध्वादित्वात् टेः पररूपम्- मनीषा<br />३. प्रज्ञा –: प्रज्ञायतेऽनया, प्रज्ञानं वा प्र उपसर्गपूर्वक ज्ञा धातु<br /> (ज्ञाऽवबोधने) आतश्चोपसर्गे इत्यङ्<br /> इस प्रकार पहले पर्याय का अर्थ हुआ – जिसके द्वारा बोध किया जाय । दूसरे का अर्थ हुआ – मन की गति या मन का दर्शन । तीसरे का अर्थ है – जिसके द्वारा जाना जाता है । उपर्युक्त तीनों शब्द एक ही ’बुद्धि’ शब्द के पर्याय हैं, किन्तु सभी उसके अलग- अलग पक्ष को बताते हैं । अमरकोष पर आज तक ४० से भी अधिक टीकाओं का प्रणयन किया जा चुका है । उनमें से कुछ प्रमुख टीकाएँ निम्नलिखित हैं –<br /><br />१. अमरकोशोद्घाटन -: इसके रचनाकार क्षीरस्वामी हैं । यह क्षीरस्वामी का प्रमेयबहुल ग्रन्थ है । यह अमरकोष की सबसे प्राचीन टीका है । क्षीरस्वामी के समय के विषय में स्पष्टरूप से नहीं कहा जा सकता । परन्तु विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर इनका समय १०८० ई० से ११३० ई० के मध्य निर्धारित किया जा सकता है ।<br />२. टीका सर्वस्व -: इसके रचनाकार सर्वानन्द हैं । ये बंगाल के निवासी थे । इनके विषय में स्पष्ट साक्ष्य प्राप्त होते हैं, जिसके अनुसार इनका समय ११५९ ई० है ।<br />३. कामधेनु -: इसके रचनाकार सुभूतिचन्द्र हैं । इस टीका का अनुवाद तिब्बती भाषा में भी उपलब्ध है । इनका समय ११९१ ई० के आसपास है ।<br />४. रामाश्रमी -: इस टीका के रचनाकार भट्टोजि दीक्षित के पुत्र भानुजि दीक्षित हैं । इस टीका का वास्तविक नाम ’व्याख्या सुधा’ है । संन्यास लेने के बाद भानुजि ने अपना नाम रामाश्रम रख लिया । उनके नाम के आधार पर यह टीका “रामाश्रमी टीका” के नाम से प्रसिद्ध हुई ।<a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftn7" name="_ftnref7">[7]</a> आज यह प्रायः इसी नाम से जानी जाती है ।<br /> रामाश्रमी टीका में, अमरकोश में परिगणित शब्दों की व्युत्पत्ति और निरुक्ति दी गयी है । अभी तक इस टीका का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध नहीं है । यह अमरकोष की एकमात्र ऐसी टीका है, जिसमें शब्दों की व्याकरणिक व्युत्पत्तियों के साथ – साथ निरुक्ति भी दी गयी है । यास्क कृत निरुक्त में कहा गया है –<br /> “सर्वाणि नामानि आख्यातजानि ।“<a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftn8" name="_ftnref8">[8]</a><br /> इसी सिद्धान्त का पालन करते हुए भानुजि दीक्षित ने अमरकोष में परिगणित शब्दों का निर्वचन किया है । वे भी सभी शब्दों को धातुज मानते हुए उनका निर्वचन करते हैं ।<br /><br />इस क्षेत्र में हुए शोध कार्यों का सर्वेक्षण (Servey) -: इस विषय पर शोधार्थी को कोई शोध कार्य दृष्टिगोचर नहीं होता, किन्तु अमरकोष की अन्य टीकाओं को आधार बनाकर विभिन्न शोध प्रबन्ध प्राप्त होते हैं । जिनमें से “स्थालीपुलाकन्यायेन” कुछ प्रमुख शोध प्रबन्ध निम्नलिखित है –<br />१. गुप्ता, सुधा - सामाजिक विकास : अमरकोश से हलायुध तक (प्रो० सत्य पाल नारङ्ग के निर्देशन में एम० फिल हेतु लघु शोध प्रबन्ध, दिल्ली विश्वविद्यालय, १९७९) अप्रकाशित<br />२. फक्का(खन्ना), सुषमा - देववाची शब्दों का विकास – संस्कृत कोषों के आधार पर, १२वीं शती तक<br />३. शर्मा, सुधा - क्षीरस्वामीकृत “अमरकोशोद्घाटन” टीका का समालोचनात्मक अध्ययन (प्रो० सत्य पाल नारङ्ग के निर्देशन में एम० फिल के लिए लघु शोध प्रबन्ध, दिल्ली विश्वविद्यालय, १९८०) अप्रकाशित<br /><br />शोध वैशिष्ट्य -: प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में अमरकोष के धीवर्ग का विवेचन रामाश्रमी टीका एवं अन्य टीकाओं के आधार पर करना अभीष्ट है, जो कि सर्वथा नवीन शोध कार्य है । शोधार्थी को उपर्युक्त शोध से सम्बन्धित कोई भी शोध कार्य उपलब्ध नहीं हुए । अतः प्रस्तुत शोध प्रबन्ध सर्वथा भिन्न है ।<br /><br />प्राथमिक स्रोत (Primary Source) -: प्रस्तुत शोध प्रबन्ध से सम्बन्धित प्राथमिक स्रोत निम्नलिखित है –<br />१. अभिमन्यु, श्रीमन्नालाल अमरकोष : भाषा टीका सहित, चौखम्बा ओरिएण्टल, वाराणसी २००८<br />२. शास्त्री, हरहोविन्द अमरकोष : भानुजिदीक्षितकृत रामाश्रमी प्रकाशाख्यव्याख्योपेतः-, चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी २००६<br />३. विद्याभूषण, सतीशचन्द्र अमरकोष (तिब्बती अनुवाद), कोलकाता, एशियाटिक सोसाइटी, १९११<br />४. पण्डित शिवदत्त अमरकोष, श्री भानुजिदीक्षितकृत सुधाख्या रामाश्रमीत्यपरा टीका सहित, राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थान, पुनर्मुद्रित, नई दिल्ली, २००३<br />५. तिवारी, यज्ञदत्त अमरसिंहविरचित अमरकोष भाषाविवरणसहित (हिन्दी), नेपाल राजकीय प्रज्ञा प्रतिष्ठान, नेपाल, १९८९<br /><br />शोध प्रविधि (Research Method) -: प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के अन्तर्गत पहले धीवर्ग में परिगणित शब्दों का संकलन किया जायेगा । तदनन्तर अन्य टीकाओं एवं रामाश्रमी टीका में उल्लिखित धीवर्ग के पाठभेदों एवं निरुक्तियों तथा व्युत्पत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जायेगा । इस प्रकार शोध प्रविधि विवेचनात्मक तथा तुलनात्मक होगी ।<br /><br />अस्थायी अध्याय विभाजन :- प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के अध्यायों का विभाजन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जाना अभीष्ट है –<br />१. विषय प्रवेश<br />२. अमरकोष एवं विभिन्न टीकाएँ<br />३. रामाश्रमी टीका के अनुसार धी वर्ग का विवेचन<br />४. उपसंहार<br />Primary Sources:-<br />१. अभिमन्यु, श्रीमन्नालाल अमरकोष : भाषा टीका सहित, चौखम्बा ओरिएण्टल, वाराणसी २००८<br />२. शास्त्री, हरहोविन्द अमरकोष : भानुजिदीक्षितकृत रामाश्रमी प्रकाशाख्यव्याख्योपेतः-, चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी २००६<br />३. नारङ्ग, प्रो० सत्य पाल संस्कृत कोष शास्त्र के विविध आयाम , राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली १९९८<br />४. उपाध्याय, बलदेव संस्कृत शास्त्रों का इतिहास, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, १९९४<br />५. विद्याभूषण, सतीशचन्द्र अमरकोष (तिब्बती अनुवाद), एशियाटिक सोसाइटी, कोलकाता, १९११<br />६. तिवारी, यज्ञदत्त अमरसिंहविरचित अमरकोष भाषाविवरणसहित (हिन्दी), नेपाल राजकीय प्रज्ञा प्रतिष्ठान, नेपाल,<br />Secondary Sources:-<br />१. द्विवेदी, डॉ बालमुकुन्द संस्कृत कोष : उद्भव और विकास, स्मृति प्रकाशन, इलाहाबाद, १९७९<br />२. त्रिपाठी, कैलाशचन्द्र अमरकोष का भाषावैज्ञानिक अध्ययन, चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, १९८४<br />३. वर्मा, रामचन्द्र कोष-कला, साहित्य रत्नमाला, वाराणसी, १९५२<br />४. पाटकर, मधुकर मंगेश कोष-कल्पतरु, डेक्कन कॉलेज़ पी.जी. रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना, १९६६<br />५. खण्डेकर, काशीनाथ वासुदेव संस्कृत-कोष, चन्द्र प्रकाश पब्लिकेशन्स, बॉम्बे, १८६६<br />६. ---------- कोष विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, १९७९<br />७. Patkar, Madhukar Mangesh History of Sanskrit Lexicography, Munshiram Manoharalal Publishers Pvt. Ltd., New Delhi, 1981<br />८. Patridge, Eric, The Gentle art of Lexicography; Andre Deutsch Ltd. London-1963<br />९. Katre Sumitra mangesh, Indo Aryan Lexicography; Poona Orientalist Vol. 15, 1937<br />१०. Mishra, B. G., An Introduction to Lexicography; CIIL, Mysore-1982<br />११. Mishra B. G., Lexicography in India; CIIL, Mysore-1980<br />१२. A Bibliography of Dictionaries and Encyclopedias in Indian Languages; National Library Calcutta<br />१३. Huet, Gerard, Structure of a Sanskrit Dictionary; INRIA-Rocquencourt, Sep. 1, 2000<br /><br />(3) Lexical Resources:-<br /> 1.Huet, Gerard Sanskrit – French electronic dictionary, 2004<br /> 2. Colebrooke, H.T. Dictionary of the Sanskrit language with English interpretation & annotation, New Delhi, 1989<br />3. Bontes, Louis stand-alone PC based version of Monier Williams dictionary, 2005<br />4. Apte Sanskrit Dictionary Search - a web Sanskrit dictionary based on the famous work of V. S. Apte - The Practical Sanskrit-English Dictionary<br />5. BharatiyaBhasha multilingual dictionary built by Central Hindi Directorate, New Delhi under TDIL<br /><br />(4) Research Have Done -<br /> १. गुप्ता सुधा - सामाजिक विकास : अमरकोश से हलायुध तक दिल्ली विश्वविद्यालय, १९७९<br /> २. फक्का (खन्ना) सुषमा - देववाची शब्दों का विकास – संस्कृत कोषों के आधार पर, १२वीं शती तक<br /> ३. शर्मा ४. शर्मा सुधा - क्षीरस्वामीकृत “अमरकोशोद्घाटन” टीका का समालोचनात्मक अध्ययन, दिल्ली विश्वविद्यालय, १९८०<br /><br />(5) Intrnet Sources :-<br /> <a href="http://sanskrit.jnu.ac.in/amara/index.jsp">http://sanskrit.jnu.ac.in/amara/index.jsp</a><br /> <a href="http://asignoret.free.fr/index.html" target="_blank">http://asignoret.free.fr/index.html</a><br /> <a href="http://aa2411s.aa.tufs.ac.jp/~tjun/sktdic/" target="_blank">http://aa2411s.aa.tufs.ac.jp/~tjun/sktdic/</a><br /> <a href="http://tdil.mit.gov.in/download/BharatiyaBhasha.htm" target="_blank">http://tdil.mit.gov.in/download/BharatiyaBhasha.htm</a><br /> <a href="http://members.ams.chello.nl/l.bontes/" target="_blank">http://members.ams.chello.nl/l.bontes/</a>.<br /> <a href="http://www.uni-koeln.de/phil-fak/indologie/tamil/cap_search.html" target="_blank">http://www.uni-koeln.de/phil-fak/indologie/tamil/cap_search.html</a><br /> <a href="http://sanskritdocuments.org/dict/" target="_blank">http://sanskritdocuments.org/dict/</a><br /> <a href="http://pauillac.inria.fr/~huet/SKT/indo.html" target="_blank">http://pauillac.inria.fr/~huet/SKT/indo.html</a><br /> <br />१. <a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftnref1" name="_ftn1"></a>धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशङ्कुर्वेतालभट्टघटकर्परकालिदासः ।<br />ख्यातो वाराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नवविक्रमस्य ॥<br />- शब्दकल्पद्रुम पेज-८३<br />२. <a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftnref2" name="_ftn2"></a>इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्न आपिशली शाकटायनः ।<br />पाणिन्यमरजैनेन्द्रजयन्त्यष्टादिशाब्दिकाः ।। वही<br />३. <a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftnref3" name="_ftn3"></a>भूमिका तथा प्राचीन मतों का भूमिकाओं से संकलन - Vogel Pg. 09 - 310<br />४. <a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftnref4" name="_ftn4"></a>संस्कृत शास्त्रों का इतिहास- कोष विद्या का <span style="font-family:arial;">इतिहास</span><br />५. <a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftnref5" name="_ftn5"></a>शेषं ज्ञेयं शिष्टप्रयोगतः । - अमरकोष ३.५.४६<br />६. <a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftnref6" name="_ftn6"></a>अमरकोष- धीवर्ग १<br />७. <a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftnref7" name="_ftn7"></a>संस्कृत शास्त्रों का इतिहास- कोष विद्या का इतिहास<br />८. <a title="" style="" href="http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=2254608446026408546#_ftnref8" name="_ftn8"></a>निरुक्त – प्रथम अध्यायRajhttp://www.blogger.com/profile/17416312611933993115noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2254608446026408546.post-3331651821380246222008-04-19T12:30:00.000-07:002011-05-10T00:50:28.302-07:00मेरठ गुरुकुले परिभ्रमणं<div><br /><div><br /><br /><br /><div><span class=""> अहं मित्रस्य गृहे</span> गतवान् फरवरी मासे । तत्र अहं शशि, देवलिना सार्धं गतवन्तः । अन्ये सहपाठिनः अपि तत्र गन्तुम अवाञ्छन्, किन्तु विभिन्न वैयक्तिक समस्या कारणे तत्र न गतवन्तः । प्रियङ्का तु स्वस्वास्थ्य कारणे तत्र न गतवती। जय स्वभवन विनिर्माण कारणे तत्र न गतवती - इदं सा कथितवती। परन्तु जनाः कथ्यते सा केनापि भिन्न कारणे तत्र न गतवती।सर्वप्रथम वयं बसयान(६१५) माध्यमेन नव देहली लौहपथगामिनि विश्रामस्थलीं प्रति गतवन्तः । ततः बसयानमाध्यमेन लालकिला इति नामधेयम स्थाने प्राप्तवन्तः। ततः डी.टी. सी. बसयानमाध्यमेन मेरठनगरे प्राप्तवन्तः। ततः टैक्सी माध्यमेन विश्वेशस्य गृहे प्राप्तवन्तः । तत्र सर्वे जनाः कुशलतापूर्वकेण आचरितवान् । सायंकाले वयं सपादअष्टवादनं पर्यन्तं तत्र प्राप्तवन्तः। वयं भोजनं कृत्वा शयनं कृतवन्तः यतः सर्वे जनाः अतीवयात्रा कारणे क्लान्तः भूत। प्रातः काले अहं विश्वेशस्य पित्रा सह ग्रामस्य अन्तर्भगे गतवन्तः । तावत् पर्यन्तं सर्वे जनाः भोजनं कृत्वा गुरुकुलं दर्शने उत्सुकाः आसन्। वयं द्विचक्रिका माध्यमेन ततः गुरुकुलं प्रति प्राप्तवन्तः।</div><br /><br /><div></div><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5191056008611258514" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgKboM0NTupEWD-LJPZGDz4pSm5SCRznBU1ibEgc6JKD35BQKWX2-SFHriPQnxWveW2_yuavbk9RFdqPrx555LVrvsuQCBPw7xgB4T3ow0CnGOnwO24PQIQs1HpqgXsobcOSrZd2D1XPsA/s320/IMGP0026.JPG" border="0" /><br /><br /><div><span class=""></span></div><br /><br /><div><span class=""></span>वयं व्यायाम-क्रीडा शालां दृष्टवन्तः । तत्र एकं चापः सपादलक्ष रूप्यकाणिमूल्यं यस्य अस्ति तं वयं दृष्टवन्तः। विश्वेशः तु तस्य संधानम् अपि कृतवान्।</div><br /><br /><br /><br /><br /><br /><div><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5191047397201829970" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjFg5Ab7M37hk-O4QsOzmU0jQPElF4CWMHGqlIgbwk7Hy96reJEiXDlyfU1jqBnDF3pfl1tniAVA472vgIFeE7QhtIEX1HJCmhIUnRZfF561lapsbbq85jcBKPapT6gRFJP4b33nHt_Y7Y/s320/IMGP0008.JPG" border="0" /></div><br /><br /><br /><br /><br /><p>अहमपि चापसन्धानं कृतवान्।</p><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5191049274102538338" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2jIAnULyN3qGwB6VdlKQ8sagZIb5tHEosvxmsgZCTJ3FUjjc2eWejuyCufCO9xN8sws3wXtwXVOBVzJYwPdBvTXAYOC_ZtpAl8r4hDVUUT3CzEwrWVlpF3IZ5110yUwX4mTG4Dqdj6qM/s320/IMGP0009.JPG" border="0" /><br /><br /><br /><br /><br /><p>तदनन्तरं अहं देवलिनाशशिविश्वेशसौरभस्य अन्ये च गुरुकुल छात्रेन सह चित्रं <span class="">लब्धवान्।<img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5191050730096451698" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLjQFyPWNt5iaiVjey3szV8fE_hbhpiXheoMdDshGCYKzvtz_EVFLJ1IbTxYJZnDKEgOcZ8v8ZgwR-g-miz7wQMFnE0ZyEyl2ryux66zj9_b_CnhhpfHPnUkK15McZUN2jbdWdUfqxnMc/s320/IMGP0010.JPG" border="0" /></span></p></div></div><br /><br /><br /><p>ततः वयं गुरुकुलस्य पुस्तकालयं प्रति गतवन्तः । पुस्तकालये पुस्तकं समक्षे देवलिना एकं चित्रं लब्धवती।<img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5191052924824739970" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgWbr52vyIayxNkgCFzHNNrZaC2fIBfrXCFKEX_9tstyF-6ck7xHkfs8RoHm2wTXms2caEWwDS4z7_dZjKUu2kmqFmTyoATN5yNjKmftGpGsf0s25oyfuoTh-hzshT406a5hfDwmBdxEPg/s320/IMGP0013.JPG" border="0" /></p><br /><br /><br /><p>ततः अहं गुरुकुलस्य गोशालां प्रति गतवन्तः। तत्र एका धेनुः चोटग्रस्ता आसन्। तस्याः अनेके छात्राः उपचारं कृतवन्तः।</p><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5191060604226265250" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgwFhBWcRKJXKKZDA0IhiWwcHoIOm_Y56c1Szj5QcP953v3Cn_damAqOm8p24FP7VzYXPJnoBIWpN92W9RxWNU_kMCpjFkcKXUksFbNq4eVInf6Hmzw0fVHdjpSjrOPGvLrlTvQA73TfXA/s320/IMGP0014.JPG" border="0" /><br /><p></p>Rajhttp://www.blogger.com/profile/17416312611933993115noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-2254608446026408546.post-66005854821678539762008-04-18T13:15:00.000-07:002008-04-19T14:26:34.867-07:00rajneesh: Relegion<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjHc7RdA2Ns6Se17H-7xqeJrvT_hsYGGXvtlXTttyO0ebjkj30_RV6wAutjHdwXvFd4o1YJdG2jU0BAH7Tv9w1Ry1OTmZUnhI7JHV7VXEm7oMvbWS_p5Z07HoZD1Sb2qzWLd6FK-1mCo1k/s1600-h/IMGP0009.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5190682851295407186" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjHc7RdA2Ns6Se17H-7xqeJrvT_hsYGGXvtlXTttyO0ebjkj30_RV6wAutjHdwXvFd4o1YJdG2jU0BAH7Tv9w1Ry1OTmZUnhI7JHV7VXEm7oMvbWS_p5Z07HoZD1Sb2qzWLd6FK-1mCo1k/s320/IMGP0009.JPG" border="0" /></a><br /><div>अहं सर्वेभ्यां प्रणमामि;</div><div>मम नाम रजनीशकुमारः अस्ति । मम धर्मः हिन्दूधर्मः अस्ति। हिन्दू धर्मे अहं ब्राह्मण जाति सम्बद्धा अस्ति। </div><br /><div></div>Rajhttp://www.blogger.com/profile/17416312611933993115noreply@blogger.com1